सोमवार, 3 फ़रवरी 2020

चोपता से कार्तिक स्वामी की यात्रा 3

 

अपनी चोपता दिसम्बर यात्रा के पिछले भागों में मैंने भारी बर्फबारी एवं बन्द रास्तों के बावजूद कैसे चोपता पहुंचा उसका वर्णन किया है। सोशल मीडिया से मिले बनारस के दो छात्र मेरी इस यात्रा के साथी बने थे। भाग 1,  भाग 2
हम घुटनों तक बर्फ में डूबे हुये तुंगनाथ मार्ग पर चलते रहे, लगभग एक से डेढ़ किलोमीटर बर्फीला रास्ता पार करके हम उस स्थान पर पहुंचे जहां से केदारनाथ,केदारनाथ डोम, सतोपंथ एवं चौखम्बा पर्वतश्रृंखला अपने विशाल स्वरूप में दिखाई देते है। इस स्थान पर एक होटल था जो इस समय बर्फ में पूर्णतया डूबा हुआ था, मेरी पिछली यात्रा के दौरान जब वापसी में मेरे कसबल ढीले हुये थे तब हमने यही पर चाय और मैगी खाई थी, उस होटल के सामने ही सीधी चढ़ाई वाला वह स्थान था जहां पिछली बार मैं और मेरी साली जी बुरी तरह फंस गए थे, जहां से वे मुझे लगभग लादते उठाते वापस लाइ थीं। वह शॉर्टकट था, सीधा रास्ता समतल था लेकिन इस समय वह बर्फ में इस कदर धंस गया था कि उसका दिखाई देना ही सम्भव नही था।
यश और केशव फोटोग्राफी में व्यस्त थे, उसी समय एक अजीब सी आवाज सुनाई दी, पहले तो मेरा वहम समझ कर नजरअंदाज कर दिया किन्तु वह आवाज फिर गूंजी तो मैंने सबको पैकअप करने के लिये कह दिया। 
यह निस्संदेह भालू की आवाज थी, उस वातावरण का प्रभाव था या सच मे मैंने भालू का स्वर सुना यह कह नही सकता, किन्तु आवाज स्पष्ट थी और मेरे अलावा यश और केशव ने भी सुनी थी इसलिये संदेह का कोई प्रश्न ही नही उठता था। वे डर गए मैं नही डरा कहूंगा तो झूठ ही कहूंगा क्योकि वहां उस यात्रा में सारे रास्ते मे केवल हम 3 ही व्यक्ति थे। वैसे भी जहां हम खड़े थे वहां से तुंगनाथ तक का मार्ग एकदम बंद दिखाई दे रहा था। तो हमने लौटने में कोई हर्ज नही समझा और उल्टे पांव तेजी से वापस जाने लगे, रास्ते मे यश भाई अनेक बार गिरते रहे, बर्फ में धँसते रहे, हम तीनों की नजरें चौकस थी, वृक्षों की गिरी हुई शाखाओं से हमने कुछ मजबूत डालियां तोड़ कर अपने साथ ले ली, यह किसी भी तरह की अकस्मात स्थिति से बचने के लिये बचकानी तैयारी थी, रास्ते भर हमारी नजरें जहां सी आहट ,पत्तो को सरसराहट और बर्फ गिरने की आवाज पर चौंक जाती। रास्ता अब भी काफी दूर था, मुझे बर्फ में कदमों के निशानों के मध्य लाल रंग के कुछ धब्बे दिखाई दे रहे थे जिसे मैंने केशव को बताया लेकिन उन्होंने गंभीरता से नही लिया। मुझे यही लगा शायद हमसे पहले आये किसी यात्री के पैरों में चोट लगने से यह धब्बे बने हो। 
आधा किलोमीटर जाते ही एक दल आता दिखाई दिया, वे चार पांच लड़के थे, सभी उत्तराखंडी ही थे। हम वापस जा रहे थे तो सोचा इन्हें भी आगाह कर दे।
उनमे से एक को हमने बताया कि आगे रास्ता नही है, हमने भी बहुत प्रयास किया और दूसरी बात हमे भालू की आवाज भी सुनाई दी है, आपको मना नही कर रहा किन्तु सावधान रहिएगा। उनपर शायद ही हमारी बात का असर हुआ हो, वे आगे बढ़ गए। उनके आगे बढ़ते ही मेरे मन मे आया कि यदि ये इस बर्फ में जा सकते है तो हम क्यो नही? इतनी दूर आकर, इतनी बर्फ में डेढ़ दो किलोमीटर चढ़कर क्या वापस आने के लिये आये है? आगे तो भालू का और बर्फ का डर था लेकिन अब तो कुछ लोग और है तो क्यो न प्रयास किया जाए, मैंने केशव को अपनी योजना बताई उसके उत्साह में बिल्कुल कमी नही आई थी। वह जोशीला लड़का था, यश भाई उसके विपरीत थे, वे जल्दी थक जाते और चिड़चिड़े हो जाते थे, हमने वापस जाने का कहा तो उनका मुंह बन गया। लेकिन हम फिर आगे बढ़े तो वो भी साथ चल दिये, कुछ ही देर में हम उस स्थान तक पहुंचने वाले थे जहां से वापस आये थे कि हमने देखा यश जी बहुत पीछे छूट गए है, उनके साथ दल के दो लोग भी थे, उन्होंने से किसी ने चीख कर कहा आपके दोस्त के पांव में से खून निकल रहा है।
हम भौंचक्क रह गए, अब तो वापस जाना ही था किसी को भी ऐसी हालत में लेकर या उसे छोड़कर जाना हमारी यात्रा और संवेदनशीलता को स्वीकार्य नही था, हम बर्फ चीरते हुए वापस लगभग 400 मीटर पीछे गए और यश भाई से जूते उतरवाए, उन्हें कुछ भी नही पता चल रहा था और न ही किसी प्रकार का दर्द हो रहा था। बर्फ में अत्यधिक ठंड में त्वचा संवेदनाहीन हो जाती है यह मैं जानता हूँ किन्तु यहां इस माहौल में भी ऐसा हो सकता है यह जानकर मैं अचंभित और घबराया हुआ था। जब जूते खोले तो भाई साहब के दोनो पैर सही सलामत, एक भी खरोंच नही।
फिर मैंने जूते देखे तो बड़ा गुस्सा आया कि जूतों के सोल का रंग हल्का लाल था जो यहां वहां छप जा रहा था।
हमे यश भाई पर बड़ा गुस्सा आया कि कैसे व्यक्ति है जो यह नही समझ सकता कि उसे चोट लगी है या नही,उनके चक्कर मे फिर से हम इतने पीछे आ गए थे कि वापस जाने के नाम पर ही दिमाग घूमने लगा था किंतु फिर भी हमने हार नही मानी और आगे बढ़ गए, इस बार रास्ता भर यश भाई को सुनाते गए, उन्हें कोई फ़र्क न पड़ना था और न पड़ा।
अब फिर हम उसी बर्फ से ढंके होटल के पास खड़े थे, हमारे आगे गए लड़के वापस आने लगे थे। मैंने उस ढलान को देखा मुझे पिछली बार की अवस्था याद आ गई, आज मैं इस ढलान को पार करके ही दिखाऊंगा, और इसी हालत में करूँगा। एक विचित्र सी जिद्द हो गई थी जबकि मार्ग में स्पष्ट रूप से बर्फ अब कमर तक होने लगी थी, मैं इस मार्ग को लेकर आश्वस्त था कि यहां मध्य में कोई गड्ढा या दरार जैसा कुछ नही है जहां फंसा जा सके या जोखिम हो, पिछली बार आने के कारण यह अच्छे से पता था इसलिये मैं आगे बढ़ गया, केशव मेरे पीछे पीछे चलने लगा। धीरे धीरे बर्फ कमर से ऊपर होने लगी, मैं ढलान के शीर्ष से कुछ ही मीटर तक पहुंचा था की बर्फ कमर से और ऊपर तक जाने लगी, दोनो हाथों से रास्ता बनाने लगा। अब शाम होने को थी, इस प्रयास में मेरे जूते, मोजे और जीन्स बुरी तरह भीग चुकी थी, शाम होते ही रास्ते मे मुश्किल आएंगी, किसी प्रकार तुंगनाथ पहुंच भी गए तो ऐसी बर्फ में वापसी असम्भव सी थी, अब ठंड बढ़ने लगी थी। मैंने अब जिद छोड़ने का निश्चय किया और अबकी बार पुनः मई में आकर दर्शन करने का निश्चय किया और वापस मुड़ गया। यश को मानो मुंह मांगी मुराद मिल गई, वापसी का सुनकर ही वो जोश में चिल्लाने लगे थे, शाम होते ही भयँकर रूप से वातावरण में गलन होने लगती जिसे हम हमारे भीगे हुए कपडों के साथ बिल्कुल सह नही पाते इसलिये समझदारी वापसी में ही थी।
अचानक मुझे प्यास महसूस हुई, यश को भी तीव्र प्यास लगी थी। बैग केवल केशव के पास थी और उसमे पानी की बोतल थी ही नही,मैंने माथा पीट लिया कि कितनी बड़ी मूर्खता थी यह कि हमने पानी की बोतल ली ही नही, मैं यश के भरोसे रह गया था और यश हमारे।
यश जोर से पछतावे भरे स्वर में बोला "भईय्या हम जरूरी चीज तो भूल ही गए,शीट!"
"और वह क्या?" मैं व्यंग्य से बोला।
"सनस्क्रीन,आपके बैग में थी। हमने उसे अपने साथ रखा ही नही।" यश ने कहा तो मुझे समझ नही आया कि क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करूँ? यार किसी बन्दे को पानी से ज्यादा सनस्क्रीन कैसे जरूरी लग सकती है? मैंने और केशव दोनो ने उसे फटकारा। उस समय एक कपल हमे आता दिखाई दिया, दोनो पति पत्नी थे और युवा थे। वे हमारी अवस्था देखकर ऊपर जाने के अपने निर्णय से मानो हिल गए थे, उन्होंने पूछा आगे कितनी बर्फ है?
"मेरे सीने तक है।" मैंने कहा, उन महिला का कद मेरे सीने से भी नीचे था तो उनके आगे बढ़ने का निर्णय एक झटके में बदल गया। इधर यश भाई प्यास के मारे गमछे में बर्फ बांध कर पानी निचोड़कर पीने के मूड में थे लेकिन उस कपल ने इसके लिये मना करके अपनी बोतल हमे दे दी, मैंने केवल यश को पीने के लिये कहा क्योकि वह थका हुआ था, एक बोतल में भला कितने पीते, आखिर जिन्होंने दिया उन्हें भी चाहिए होगा। उन्होंने हमारी सकुचाहट को भांपते हुये कहा
"आप भी पी लो, हमारे पास एक और बोतल है।" तो हमने भी दो दो घूंट ले लिये और उन्हें धन्यवाद किया, वे यही तसवीरें खिंचवाने के लिये रुकने वाले थे तो मैंने उन्हें भालू वाली बात भी बता दी कि ज्यादा देर न करें और न ही फोटो के चक्कर मे उल्टी सीधी जगहों पर जाए आगे तो जाना है नही तो जल्दी निपटाकर निकल लीजिएगा।
फिर हम आगे बढ़े और उन्ही रास्तों में गिरते पड़ते चलते रहे, इस बार मैं बिल्कुल भी नही गिरा था और ना ही कोई चोट लगी थी, तुंगनाथ तक भले ही नही पहुंचे लेकिन यात्रा रोमांचक रही। हम तीनों बर्फ में चलते चलते बुरी तरह थक चुके थे, काफी देर पश्चात हम प्रवेशद्वार पर पहुंच चुके थे। शाम हो आई थी, चारो ओर सूर्य की लालिमा फैलने लगी थी, प्रवेशद्वार के आसपास के जंगल लाल होकर दमक रहे थे, यह वही दृश्य था जिसे देखने के मैं स्वप्न देखा करता था। मैं उस दृश्य का हिस्सा बन चुका था। हमने फटाफट अपने बैग्स होटल से उठाए और अंधेरा होने के पहले आश्रय की व्यवस्था में जुट गए, जिन भाई साहब की गाड़ी हमने बर्फ से निकाली थी हम उन्ही के बताए ढाबे की ओर बढ़ने लगे।
वहां कुछ और व्यक्ति भी थे जो ट्रेकिंग के उद्देश्य से आये थे लेकिन बर्फ देखते हुए उनकी हिम्मत ही नही हुई, उन्हें उस स्थान के बारे में कोई जानकारी नही थी तो मैंने उन्हें पंचकेदार की कहानी और अपने पिछले ट्रैक्स के अनुभव बताये, हमारी बातें सुनकर एक स्थानीय दुकानदार आगे आये और मेरी ओर देखकर प्रश्न किया।
"आप कहाँ रहते है?"
"जी,मुम्बई में।"
"तभी ऐसा लगा कि आपको कहीं देखा हुआ सा क्यो लग रहा है।" उनकी बात सुनकर मैं अचंभित हो गया कि ये क्या कह रहे है? वो मुझे कैसे जानते है।
"आप सीरियल में काम करते है ना? मैंने आपको कई बार देखा है।" मैं उनकी बात पर झेंप गया, क्या प्रतिक्रिया दूं यह समझ मे नही आया,मुझे उनकी मासूमियत पर बड़ी हंसी आई, मैंने उन्हें धन्यवाद कहा और समझाया हर मुम्बईकर सिरियल में काम नही करता, आप किसी और के धोखे में मुझे समझ रहे है। फिर हम आगे बढ़े तो हमारे आगे चौखम्बा पर्वत एकदम किसी तप्त कोयले की भांति लाल होकर दहकता सा नजर आ रहा था,बाकी की पर्वतशृंखलाये भी सोने की भांति कांतिमान हो रही थी, संपूर्ण वातावरण में अद्भुत छटा फैली हुई थी, यहां तक कि मुझे इल्यूजन सा होने लगा कि शायद मैं किसी गहरे सपने में हूँ, मैंने खुद को चिकोटी भी काटी किन्तु वाकई महसूस तक नही हुई, यदि यह स्वप्न था तो मैं इस स्वप्न से बाहर नही आना चाहता था। हतप्रभ सा होकर मैं और मेरे साथी उस अद्वितीय सौंदर्य को देख रहे थे, लेकिन कुछ ही पलों तक, कुछ ही क्षणों में सूर्य अचानक से अस्त हो गए,मतलब जैसा मैदानी क्षेत्रों में होता है धीरे धीरे एक घण्टे में अस्त होते है, ऐसे नही, बल्कि एकदम एक झटके में, एक ही मिनट में अंधेरा हो गया। 
हम उस ढाबे तक पहुंचे तो हमे ढाबे के पीछे बर्फ में एकदम डूबा हुआ सा कमरा मिल गया, 1500 का बोलकर 1000 रुपये में कमरा तय हुआ, इस समय हम भाव ताव के मूड में बिल्कुल नही थे, भयँकर गलन हो रही थी, हमारे कपड़ें भीगे हुये थे, पैर भीगे जूते और मोजों से अकड़ रहे थे, यह स्थिति घातक रूप ले सकती थी इसलिये बस किसी भी प्रकार आश्रय का जुगाड़ आवश्यक था तो हम उस कमरे तक जाने लगे, उस कमरे तक जाना भी किसी एडवेंचर से कम नही था, एक डेढ़ फीट की बर्फ में सम्भलते सम्भालते हम वहां पहुंचे, कमरे में सुविधाएं न के बराबर थी जो ऐसी जगहों पर वैसे भी मिलनी मुश्किल थी। एक बेड और कम्बल ही इस समय लक्जरी थी हमारे लिये। यह कमरा ऐसे स्थान पर था जहां से सूर्योदय देखना काफी रोमांचक अनुभव रहने वाला था। कमरे में पहुंचते ही सर्वप्रथम हमने कपड़े बदले, मोजे उतारे और नए मोजे पहन कर कम्बलों में जा घुसे, केशव खाने पीने का सामान लाया था तो हमने ब्रेड, बटर,खोवा, और नमकीन खाया तो पेट भर गया।
अब समय था सोने का, सुबह जल्द ही उठना था, सूर्योदय को देखना था। यही पर कार्तिक स्वामी जाने की योजना भी बन गई। 
हम कार्तिक स्वामी भी गए, और वहाँ की यात्रा इससे भी अधिक रोमांच साबित हुई।
वह अगली श्रृंखला में.....










गुरुवार, 23 जनवरी 2020

चोपता से कार्तिक स्वामी की यात्रा 2

अपनी यात्रा के पिछले भाग में मैंने बताया था किस प्रकार से चोपता के लिये निकलते ही सूचना प्राप्त हुई कि भारी बर्फबारी के कारण चोपता जाने के रास्ते बंद हो चुके है। इसके बावजूद भी हमने अंतिम क्षण तक प्रयास करने का निश्चय किया और हरिद्वार से चोपता के लिये प्रस्थान कर गए।
हरिद्वार में ही दो लड़के मेरे साथ और जुड़ गए जो बीएचयू के विद्यार्थी थे। उनसे मेरी बात यात्रा के महीनों पहले से हो रही थी, हम फेसबुक द्वारा ही मिले थे और सहयात्री बन गए। किसी प्रकार जोड़ तोड़ करते कराते हम बर्फ में चलते पड़ते आखिरकार तुंगनाथ मुख्य द्वार तक जा पहुंचे।
उस समय दोपहर हो चुकी थी, तुंगनाथ द्वार के समक्ष स्थित मार्ग पर तीन तीन फीट बर्फ जमी हुई थी। हमारे मुंह से ठंडी भांप निकल रही थी, चूंकि दोपहर हो चुकी थी और द्वार पर कुछ पस्त पड़े ट्रेकर्स का जत्था अस्तव्यस्त और हैरान दिखाई दे रहा था तो यात्रा पूर्ण होने की संभावना काफी कम दिखाई दे रही थी। हमने उनमे से कुछ से आगे का हाल पूछा तो बताया गया कि बामुश्किल आधा किलोमीटर चलकर वे वापस आ गए, आगे बर्फ इतनी ज्यादा पड़ी हुई है कि उससे ज्यादा आगे बढ़ना सम्भव ही नही। हमने द्वार की ओर देखा वहां बर्फ का ढेर लगा हुआ था, हमारी हिम्मत टूट सी गई थी। उसी समय दो व्यक्ति कमर तक भीगे हुये ट्रेक से वापस आते दिखे, द्वारा की सीढ़ियों पर बर्फ पिघल कर जम गई थी जिस कारण भयँकर फिसलन हो गई थी। उन दोनों में से एक लड़का बेधड़क चलते हुये आया और फिसल गया , वह फिसल कर सीढ़ियों से नीचे आ गिरता लेकिन उसने गजब की फुर्ती दिखाते हुये द्वार की घण्टी पकड़ ली और बंदर की भांति झूल गया। हालांकि यह अनपेक्षित रूप से हो गया था, उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थी। हमने उसे सीढ़ियों के मध्य के बजाय किनारे से आने के लिये कहा, किनारों पर अब भी कोनो में भुरभुरी बर्फ थी जिससे फिसलन कम होती। उसने ऐसा ही किया और सकुशल नीचे आ पहुंचा। फिर उसका साथी आगे बढ़ा और वह भी फिसल कर अपने दोस्त की तरह घण्टी की जंजीर से जा लटका, उसके लटकने का अंदाज देखकर मुझे टार्जन की याद आ गई, हमारी हंसी छूट गई। वह बेचारा किसी प्रकार किनारे से होते हुये नीचे उतरा। मै अपना उपन्यास लेकर आया था, तो मैंने तुंगनाथ द्वार पर ही उसकी तस्वीर भी खींच ली।
दोपहर होती जा रही थी और हमे ट्रेक भी करना था, पिछले दिसम्बर की यादें अब तक जेहन में ताजा थी, मैं जानता था उस समय इतनी कम बर्फ के बावजूद मेरी हालत खस्ता हो गई थी तो इस समय तो बर्फ के अलावा और कुछ भी दिखाई नही दे रहा था। यात्रा आरम्भ करने से पूर्व कुछ खाना पीना आवश्यक था तो हमने द्वार के सामने स्थित ढाबे पर आलू के परांठे, मैगी और चाय पी। यश भाई खाने के मूड में बिल्कुल नही थे, वो मुंह बना रहे थे। उनके अनुसार आलू के परांठे वगैरह हैवी हो जाएंगे तो ट्रेकिंग में तकलीफ देंगे तो वो ब्राउन ब्रेड और पीनट बटर खाने की सोचने लगे जो हम साथ लाये थे। जी, हम अपने साथ खाने पीने की कुछ वस्तुएं साथ रखे हुये थे ताकि भगवान न करें यदि कहीं फंस जाए तो उस परिस्थिति में काम आ सके।
मैंने उन्हें समझाया ऐसे मौसम में कितना भी हेवी ठूंस लो लेकिन उसे पचने में कुछ ही देर लगेगी। ऊर्जा और गर्मी चाहिये तो ब्रेड बटर को मारो गोली और चापो गरमा गरम परांठे, वो न माने। मैं और केशव मजे से परांठे खाने लगे, परांठे वाकई बेहद स्वादिष्ट थे, हम मजे लेकर खाते और तारीफ करते रहे तो यश भाई भी ललचा कर बैठ गए और एक परांठा खा कर ही माने। सब खाने पीने के बाद अब बारी थी घुटनों भर बर्फ से भरे पथ पर चलने की तैयारी करने की। मैंने वुडलैंड के ट्रेकिंग शूज पहन रखे थे जो बर्फ में बढ़िया पकड़ बनाये हुये थे, अब तक के मार्ग में यश और केशव अनगिनत बार गिरे थे किंतु मैं एक बार भी नही गिरा।
ढाबे से ही उन्होंने बूट्स किराये पर लिये और हमने ढाबे वाले चाचा जी के पास ही अपने बैग्स रखवा दिये और बम भोले, हर हर महादेव का उद्घोष करते हुये द्वार पर माथा टेक दिया और पहला कदम आगे बढ़ा दिया, द्वार की चंद सीढ़ियों से ऊपर चढ़ने में जो गफलत हुई उसने साबित कर दिया कि आगे का रास्ता बिल्कुल भी आसान नही होने वाला है। केशव और यश ने रेनकोट पहन रखे थे और मैं अपनी जैकेट पर ही था। घण्टी से लटके युवक की लाठी सीढ़ियों पर ही गिरी थी जो मैंने कब्जा ली थी।
हम कुछ ही मीटर चले होंगे कि पैर घुटनो तक बर्फ में धंसने लगे, चारो ओर सफेद चमचमाती बर्फ ही बर्फ दिखाई दे रही थी, ट्रेक के आरम्भ में लगभग एक किलोमीटर तक जंगल पड़ता है, जंगल का सारा भाग बर्फ से ढंका हुआ था। मैं ऐसा नजारा पहले भी देख चुका था लेकिन केशव और यश ने इतनी बर्फ पहली बार ही देखी थी, वो दोनो अत्यधिक रोमांचित थे और उत्साह से चीख रहे थे चिल्ला रहे थे। आसपास के पेड़ों पर से बर्फ गिर रही थी जो स्नोफॉल का वहम पैदा करती थी। हम घुटने धँसाते धँसाते आगे बढ़ने लगे। यश भाई आरम्भ में ही हिम्मत हारने लगे, वो अनेक बार अपना संतुलन खो कर बर्फ में गिरते पड़ते रहे।
हमने किसी प्रकार एक किलोमीटर पार किया, मैं भी समझ रहा था कि हम बेकार की जिद में है, क्योकि इस भयंकर बर्फ में तुंगनाथ तक पहुंचना लगभग असंभव सा था, वैसे भी 2 बज रहे थे, दो घण्टे में ही अंधेरा होना शुरू हो जाएगा, यदि हम सुबह प्रयास करते तो ऊपर पहुंचने के बारे में सोच भी सकते थे किंतु इस समय यह सम्भव ही नही था। यदि किसी प्रकार गिरते पड़ते मंदिर तक पहुंच भी जाते तो रात हो जाती और नीचे आना असम्भव हो जाता। ऊपर से बर्फ में भीगने के कारण और तापमान में भयँकर गिरावट के चलते हम ठंड से अकड़ जाते। 
तो मैंने निर्णय लिया कि हम उस स्थान तक जाएंगे जहां से चौखम्बा, केदारनाथ और सतोपंथ पर्वत श्रृंखलाएं दिखाई देती है, मैंने दोनो को समझाया कि वहां पहुंचकर आप जो दृश्य देखोगे वह आजीवन याद रहेगा, अविस्मरणीय अवर्णनीय और अकल्पनीय सुंदरता होगी, उस दिव्य अनुभव के लिये चलते है। वे मान गए, मैं और केशव द्रुत गति से चलते रहे लेकिन यश भाई अपने जूतों के कारण धीमे पड़ गए और गिरते पड़ते रहे। सम्पूर्ण मार्ग में केवल हम तीन ही दिखाई दे रहे थे। 
आखिरकार हम उस स्थान पर पहुंचे जहां घने जंगल वाला हिस्सा समाप्त होता है और चौखम्बा, केदारनाथ,सतोपंथ इत्यादि पर्वत श्रृंखलाएं दिखाई देती है। यश और केशव एकम अवाक से थे, मैंने यह दृश्य पहले भी देखा था किंतु फिर भी प्रतीत हो रहा था मानो पहली बार ही देख रहा हूँ।हम तीनों थक कर चूर हो चुके थे और वही बर्फ में कुछ देर बैठ गए, मैंने उनसे कहा कि कुछ दूर और चलते है, अभी भी आगे कुछ पैरों के निशान है तो हम आखरी निशान से कम से कम बीस कदम आगे जाकर ही वापस आएंगे। वो मान गए। थोड़ी ही दूर जाकर पैरों के निशान गायब हो गए, हम शायद पहले थे जो उन पैरों के निशानों से भी काफी आगे आ चुके थे। दूर दूर तक बस सफेद बर्फ से ढंके पहाड़ और जंगल ही नजर आ रहा था, केशव और यश फोटोग्राफी में व्यस्त हो गए और मैं इस दिव्य वातवरण को निहारने लगा। उसी समय मुझे कोई आवाज सुनाई दी, मैंने अपने बाई ओर की ढलान पर देखा, आवाज वहीं से आई थी, फिर मुझे लगा शायद भरम हुआ हो। ऐसी जगहों पर अक्सर वहम हो जाया करते है, लेकिन वह आवाज फिर सुनाई दी। और इस बार यश और केशव दोनो को सुनाई दी।
"भईया यह कैसी आवाज थी?" यश ने घबराकर प्रश्न किया।
"यह भालू की आवाज है, फौरन निकलो यहां से।" मुझे पहचानने में पक्का भूल नही हुई थी।

शेष है....


















सोमवार, 30 दिसंबर 2019

चोपता से कार्तिक स्वामी की यात्रा

इस समय किसी भी हिमालयन ग्रुप में चले जाइये, आपको तुंगनाथ चोपता की तस्वीरें इतनी मिल जाएंगी कि यदि आप नही गए होंगे तो अगली योजना वही जाने की बना लेंगे।
मैं खुशकिस्मत हूँ जो लगातार 2 साल दिसम्बर में वहां जा पाया।
इस बार के हालात मुश्किल हो गए थे, मुम्बई से निकलते ही अपडेट मिली कि चोपता तक जाने के रास्ते भारी बर्फबारी के कारण बंद हो चुके है, मन खराब हो गया लेकिन फिर भी अब घर से निकल चुका था तो बिना प्रयास किये पीछे हटने का प्रश्न ही नही था।
किसी प्रकार हम रुद्रप्रयाग पहुंचे, रात हो चुकी थी और उकीमठ जाने का कोई साधन फिलहाल उपलब्ध नही था किंतु खुशकिस्मती से उकीमठ जाती एक अंतिम बस दिखाई दी हमने बगैर समय गंवाए उसे पकड़ी और उकीमठ आकर रुके।
उकीमठ में ही भरत सेवा संस्थान के आश्रम में रात्रि शरण लेने के पश्चात भोर सवेरे चोपता जाने की जुगाड़ में लग गए, कोई गाड़ी वहां जाने को तैयार नही थी, सबका कहना था कि बर्फ बहुत ज्यादा है। लेकिन फिर भी इतना समीप आकर वापस जाने का प्रश्न ही नही उठता था, ऐसे में एक स्कूल जिप्सी मिली जो ताला तक जा रही थी। हम ताला तक ही चले गए कि चलो जितना नजदीक हो सके उतना ही पहुंचते है उसके बाद कुछ नही मिले तो पैदल यात्रा ही आरम्भ कर देंगे।
लेकिन ताला से एक गाड़ी मिल ही गई जिसने 800 में चोपता पहुंचाने की बात तय की, लेकिन उसने हमें चोपता से 4 किलोमीटर नीचे ही छोड़ दिया कि इससे आगे गाड़ी नही जा पाएगी आप पैदल चले जाओ, हमने मंजिल तक पहुंचने तक के पैसे दिए थे तो हमने थोड़ा कन्सेशन को कहा तो भाई साहब बिदक गए। उनका स्वभाव एकदम बदल गया, अभी तक जो मिलनसार और हँसमुख नजर आ रहे थे वे एक ही बात पर मानो काटने दौड़ने पर उतारू हो गए, मुझे बहस में नही पड़ना था इसलिये मैंने बगैर किसी बहस के 800 उन्हें थमा दिए। 
एक सबक लेकर आगे बढ़ गए, आगे दूसरा सबक हमारी प्रतीक्षा कर रहा था। तुंगनाथ द्वार यहां से कुछ 4 किलोमीटर आगे था, मुझे आसपास का माहौल और निचे की ओर कुछ कैम्पस देखकर फौरन पता चल गया कि यह वही कैम्प है जहां हम पिछली बार रुके थे, तब भी दिसम्बर की 15 तारीख थी और आज दिसम्बर की 16 तारीख थी। उस समय बर्फ इतनी नही थी, घास और जमीन साफ दिख रही थी। इस समय न घास दिखाई दे रही थी और न जमीन, कैम्प से सड़क पर अब काफी सारे कैम्प और छोटे होटलों का झुंड बन चुका था। जंगल के पेड़ों पर बर्फ ही बर्फ जमा थी। बीच बीच मे पेड़ों से गिरती बर्फ किसी स्नोफॉल सा अनुभव कराती थी। इसलिये मैं यह कह सकता हूँ कि मैंने स्नोफॉल का भी अनुभव कर लिया। खैर मेरे साथ आये दोनो मित्रों ने इस मौसम में पहली बार कदम रखा था, बर्फ में उनकी प्रथम यात्रा थी और कहना न होगा कि यात्रा के आरम्भ में ही दबा कर बर्फ मिली थी, इतनी की उनके सात जन्मों तक कि बर्फ देखने की इच्छा ही मिट गई होगी। हमने बर्फ में थोड़ी देर खेला, बर्फ के गोले बना कर एकदूसरे को मारे,
 यश भाई साथ थे जो फेसबुक द्वारा ही मिले थे, बर्फ के गोले बना कर फेंकने की बोहनी उन्होंने ही की थी, लेकिन बर्फ मारने के चक्कर मे पिछवाड़े के बल गिर कर अस्थि मालिश का आरम्भ भी उन्ही से हुआ।
एक गाड़ी सड़क के किनारे बर्फ में धंसी हुई थी, पता चला रात से ही फंसी हुई है। गाड़ी वाले पर्यटक या यात्री नही थे, वे वही के स्थानीय निवासी थे। हमने काफी मेहनत की और अपनी सारी ऊर्जा खत्म करके उन्हें निकालने का प्रयास किया, फावड़े से बर्फ काटी, रास्ता साफ किया, टायर तक बदली करवाये, धक्के मार मार कर अपने पसीने छुड़वाए। लगभग डेढ़ दो घण्टे में गाड़ी अपने स्थान से हिली और मुख्य मार्ग पर आ लगी। अब उसमे कोई और समस्या भी थी जो हमारी समझ से परे था, हमने अपना काम कर दिया था और दोपहर होने वाली थी, हमे अभी 4 किलोमीटर पैदल भी चलना था और तुंगनाथ तक जाना भी था तो हमने उनसे विदा ली और बर्फ में डगमगाते हुये चल पड़े।
पिछली बार मैंने स्पोर्ट्स शूज पहने थे जिस कारण तबियत से गिरा था, लेकिन इस बार फ्लिपकार्ट सेल से वुडलैंड के कैमल शूज मंगवाये थे, रबड़ टायर सोल वाले। उसके रहते मजाल जो एक बार भी गिरा होऊं, लेकिन पिछली बार के फिसलने का डर इस कदर हावी था कि हर कदम फूंक फूंक कर रख रहा था, ब्लैक आइस मेरे पैरों के नीचे तड़क रही थी, जहा पैर रखता था कड़कड़ाने की आवाजें आती थी इसके बावजूद मैं सम्भल कर चल रहा था, दूध का जला था तो छांछ में भी बर्फ डाल रहा था।
बर्फीली वादियों का आनन्द लेते हुए हम एक डेढ़ किलोमीटर तक ही चले होंगे कि जिन भाई साहब की गाड़ी निकाली थी वो अपनी गाड़ी सहित आते दिखे, उन्होंने गाड़ी रोकी और हम सवार हो गए। उन्होंने तुंगनाथ द्वार तक हमे छोड़ा और किसी भी प्रकार की कोई समस्या आने पर फौरन फोन करने को कहा, हमने उनका नम्बर नोट किया और गेट के सामने वाले ढाबे पर गर्मागर्म पराठों का नाश्ता किया।
तुंगनाथ द्वार पर ही एक डेढ़ फीट की बर्फ देख कर होश गुम हो गए, कुछ लोग दिखे जो द्वार से उतरने के प्रयास में फिसल कर द्वार की घण्टियों से ही जा लटके थे।
उनसे पूछा तो बताया कि बस एक किलोमीटर तक जा पाए उससे आगे बर्फ इतनी है कि हिम्मत जवाब दे गई। मैंने यश जी और केशव की ओर देखा और निर्णय लिया कि जितनी दूर हो पायेगा उतनी दूर जाएंगे और अंतिम कदमों के निशान से कम से कम 10 कदम आगे बढ़ कर ही आएंगे।
उनके सामान्य स्पोर्ट्स शूज थे तो उसी होटल से उन्होंने किराये पर बूट्स ले लिए, दोनो बन्धु रेनकोट साथ लाये थे, उन्होंने वो भी पहन लिया। दोपहर के 2 बज रहे थे और हमारे मुंह से ठंड से भांप निकल रही थी, होटल के सामने मार्ग पर ढेर सारी बर्फ थी। में यहां अपना उपन्यास भी लेकर आया था, मेरी इच्छा थी कि मेरे द्वारा लिखित उपन्यास को महादेव का आशीर्वाद प्राप्त हो। मैंने तुंगनाथ द्वार पर ही उपन्यास की कुछ तस्वीरें खींची और हर हर महादेव का जयघोष करते हुऐ हमनी अपनी यात्रा का आरम्भ किया।

यात्रा अभी शेष है,
(अगली कड़ी में भालू जी ने उपस्थिति दर्ज कराई है)


मंगलवार, 16 अप्रैल 2019

गर्मी में लोनावला खंडाला रोड ट्रिप



फेसबुक की आभासी दुनिया से अनेक मित्र मिले हैं, जिनमे से मिथिलेश 
और शुभानन्द जी भी एक है, तीनो को एक सूत्र में पिरोया उनके लेखन के शौक ने, 
शुभानन्द जी मंझे हुए थ्रिलर लेखक है जिनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है,
 मिथिलेश जी से पुराने ग्रुप्स से पहचान थी, उनकी भी लगभग तीन पुस्तकें प्रकाशीत हो चुकी है,
 मेरे खाते में भी एक पुस्तक है जो मेरी लिखी हुई है
 और दूसरी प्रकाशित होने वाली है  
मै नीली टी शर्ट में, शुभानन्द जी मध्य में और मिथिलेश जी काली टी शर्ट में 
यहाँ इस भूमिका को बाँधने का एक ही उद्देश है और वह यह कि हम तीनो का जो तालमेल है उसे समझने में सहजता होगी
एक ही महीने पहले तय हुई योजनानुसार हैद्राबाद के रहने वाले मिथिलेश जी का मुम्बई आगमन हुआ, शुभानन्द जी नवी मुंबई के आसपास रहते है जो की मेरे यहाँ से कुछ पैतीस किमी के फासले पर पड़ता है मिथिलेश जी बस से आ रहे थे और लगातार सम्पर्क में बने हुए थे, तीनो का वाशी में मिलना तय हुआ जो की नवी मुंबई का एक शहर है शुभानन्द जी और मिथिलेश अपने गंतव्य पर पहुंच गए, किन्तु मैं उनसे मुश्किल से 500 मीटर की दूरी पर होकर भी भटकता रहा, काफी जद्दोजहद और भटकने के बाद मैं वहां पहुंचा
यह वाकई अजीब था जब मेहमान गंतव्य पर पहुंच गया और मेजबान ही रास्ता भटक गया, इस बार गूगल मैप ने धोखा दे दिया, जिसके चक्कर में आकर मै फंस गया और भटकते रहा
तीनों गर्मजोशी से एकदूसरे से मिले, और मजे की बात यह कि उस समय तक हमने तय नही किया था
कि आखिर जाना कहां है? तीनो का केवल मिलना तय हुआ था ताकि हम अपने आने वाले प्रोजेक्ट्स पर कुछ चर्चा कर सके, कोई विशेष योजना नही बनी थी, वैसे भी गर्मी के दिन होने के कारण मुम्बई के आसपास घुमने के लिए जितनी भी जगहें पता थी वे सभी गर्म रहती है, हिल स्टेशन के नाम पर माथेरान वगैरह है किन्तु एक बार चोपता-तुंगनाथ जाकर आने के पश्चात यह सब गर्म स्थल ही प्रतीत होते है वैसे भी माथेरान वगैरह अब पहले की तरह ठंडे नही है, तापमान में कुछ ज्यादा फर्क नही मिलता वहा  
जब कुछ समझ में न आया तो हम बिना कुछ सोचे समझे लोनावला की ओर निकल लिये,
शुभानन्द जी की कार होने के कारण घुमने फिरने की पूरी सहूलियत थी
मिथिलेश जी को खंडाला जाने की इच्छा थी
वो बस फिल्मों में नाम सुनकर उत्साहित थे,
हमने उन्हें समझाया लोनावला खंडाला में ज्यादा फर्क नही है, 
सब मात्र पैदल कदमों की दूरी है, मार्ग में हमने एक स्थान पर 
रुक कर कुछ हल्का फुल्का नाश्ता किया और फिर से अपने गंतव्य की
 ओर बढ़ गए,हम मुश्किल से 3 घण्टे के भीतर ही लोनावला पहुंचे और
 ज्यादा दौड़भाग किये बिना ही एक बढ़िया सा कॉटेज भी बुक कर लिया । 
दिन भर हम कड़ी धूप में घूमते रहे, प्रोजेक्ट्स के सिलसिले में काफी चर्चा और वर्कशॉप हुई
 खाने के लिए ऑर्डर करने का विचार हमने मेनू देखकर ही छोड़ दिया, 
खाना हद से ज्यादा महंगा था,
और यदि आपको घुमक्कड़ी का शौक है तो आपको फिजूल खर्ची से बचना चाहिए, वही हमने भी किया और खाने की तलाश में बाहर निकल गए, दो चार रेस्टोरंट में हमने मेनू और रेट्स चेक किये, हर जगह खाना हद से ज्यादा महंगा था, आख़िरकार कुछ दुरी पर हमे एक नया खुला हुआ ढाबा मिला, जहां मेनू वगैरह तो नही था किन्तु घर जैसा भोजन मिलेगा लिखा हुआ था, शुभानन्द जी और मिथिलेश भाई का पेट गडबड था तो घर का खाना ही उनके लिए सही था, हमने ज्यादा कुछ सोचे बगैर खाना मंगवा लिया, और वाकई में साधारण से दिखने वाले उस ढाबे का खाना रेस्टोरंट के खाने के मुकाबले कही ज्यादा स्वादिष्ट था  जब हम बिल भरने गए तब पता चला जितने दाम में बाकी रेस्टोरंट में हमे एक आदमी का खाना मिल रहा था उतने में यहाँ तीनो का हो गया था,
 हमने रात्री का मेनू पूछा और तय किया की दोबारा यही आयेंगे  
उसके बाद हमने एक वैक्स म्यूजियम में भेंट दी, जहां काफी सेलब्रिटीज
 के वैक्स की प्रतिकृतियाँ बनी हुई थी, हमने वहां काफी मस्ती की, 
वैसे हमे लोनावला में इफरात में वैक्स म्यूजियम्स देखकर काफी हैरत हुई,
 मिथिलेश जी तो चारो ओर केवल चिक्की ही चिक्की के बैनर देख कर चकराए हुए थे  

फिर हमने चलते फिरते कुछ अगली योजनाओं का खाका बनाया फिर बाहर चाय पीने की योजना बनी और चाय के चक्कर मे दस किलोमीटर तक चले गए, जहा गए थे वहां का दृश्य बेहद सुंदर था, वह खंडाला का प्रसिद्ध व्यू पॉइंट था जो बरसात में काफी सुंदर और झरनों से भरा हुआ दिखाई देता है, किन्तु इस समय वहां केवल ऊँचे पर्वत और सूखे हुए जंगल ही दिखाई दे रहे थे
हम अंधेरा होने के बाद तक वही बैठे रहे
, ढेर सारी गपशप की और शाम को फेसबुक पर लाइव आये, हालांकि देर हो गई थी । और संयोग यह हुआ कि अगले दिन मिथिलेश का जन्मदिन भी था । अगले दिन हमने 12 बजे कॉटेज छोड़ दिया और यू ही जहां गाड़ी निकले वही निकल लिये, गाडी चलती रही मैंने अपने मोबाइल से पिंक फ्लॉयड का हाई होप्स बजाया तब पता चला शुभानन्द जी भी पिंक फ्लॉयड के बड़े फैन है, फिर क्या था नए नए गाने और कभी ण खत्म होता पहाड़ी घुमावदार रास्ता, बढ़िया समा बंध गया, 
पिंक फ्लॉयड से शुरू हुआ सफर हिंदी, पंजाबी गानों से होते हुए अंत में भोजपुरी 
गानों पर आकर समाप्त हुआ हमने इस विषय में चर्चा भी की कि किस प्रकार कुछ ही घंटे में लोगो की पसंद कहा से कहा पहुँच जाती है  

लगभग दो घण्टे पश्चात हम एक बड़े से सुंदर तालाब के समीप पहुंच गए जहां नीरव शांति थी, यह पौना लेक था  पहाड़ो के ऊपर से हम नीचे तालाब की ओर पैदल ही मार्च कर लिये और वहां पहुंचकर काफी मस्ती की । चिलचिलाती धुप में हम पहाड़ी से निचे उतरते हुए तालाब की ओर बढने लगे, मार्ग में करौन्धो की झाड़ियाँ मिली तो हमने दांत खट्टे होने तक करौंधे खाए, तालअब काफी विशाल और स्वच्छ था, 
वहा काफी ठंडक थी, हमने पानी के छपाके अपने चेहरे पर मारे और काफी देर 
तक तालाब के किनारे बैठे रहें, हमने वहाँ की काफी तस्वीरें ली और यादगार के तौर पर कुछ वीडियोज भी बनाये
अब चलने का समय था, शाम तक वापस वाशी पहुंचना था क्योकि मिथिलेश 
की साढ़े आठ बजे की बस थी हैद्राबाद की । 
तो हम वहां से निकले, रास्ते मे एक ढाबे पर मिथ के जन्मदिन के उपलक्ष्य में शानदार और स्वादिष्ट खाने का लुत्फ उठाया, वहां हमने काफी मजेदार क्षण बिताए,
क्या शुभानन्द जी क्या मैं क्या मिथिलेश, तीनों मिमिक्री करते रहे
शक्ल से गंभीर नजर आने वाले शुभानन्द जी भी हमारी तरह मस्तीखोर ही निकले

ढेर सारी वीडियोज और तस्वीरें खींची गई
। फिर हम कुछ ही घन्टों में पुनः वहां पहुंच चुके थे जहां से मिथिलेश और शुभानन्द जी ने मुझे पिक अप किया था। वहां एक छोटे से केक शॉप में जाकर पेस्ट्री के रूप में ही हमने जन्मदिवस मनाने की खानापूर्ति भी कर ली । आखिरकार बस भी आ गई और मिथिलेश को फिर मिलने के वादे के साथ विदा कर दिया गया, शुभानन्द जी के साथ मैं स्टेशन वापस आया और फिर मिलने के वादे के साथ हमने विदा ली कुल मिला कर अचानक बनी हुई योजना और 
सफर प्लानिंग करके गए हुए सफर से अधिक रोमांचक साबित हुई यह कहूँ तो कोई 
अतिश्योक्ति नही होगी, मैंने कॉटेज में उन्हें चोपता में बिठाये हुए दिनों की तस्वीरें और विडियोज उन्हें दिखाए तो वे मंत्रमुग्ध से रह गए, और अगली योजना नवम्बर में चोपता-तुंगनाथ-चन्द्रशिला की तय हुई,
 मैंने उनसे वादा भी किया कि चोपता-तुंगनाथ की यात्रा आप सबके जीवन की सबसे 
अविस्मर्णीय यात्रा होगी 
 और हाँ इस यात्रा के विडियोज को मैंने एक यादगार के रूप में एडिट करके यूट्यूब पर भी
 डाल दिया जो आप इस लिंक के पर जाकर देख सकते हैं
नवम्बर में मिलने के वादे के साथ हमने एकदूसरे को विदा किया


गुरुवार, 11 अप्रैल 2019

दिल्ली क्राइम : वेबसीरिज

वेबसिरिज के रूप में नेटफ्लिक्स ने 'दिल्ली क्राइम' नाम से एक उम्दा सीरीज बनाई है। यह पहली सीरीज है जिसे इतनी जल्दी समाप्त किया। निर्भया केस पर होने के कारण मैं इसे देखने से कतरा रहा था, मैं उस घटना का सजीव चित्रांकन देखने का साहस नही जुटा पा रहा था, किन्तु जब पता चला सीरीज उस घटना के पश्चात अपराधियों के पकड़ने की जद्दोजहद और इन्वेस्टिगेशन पर आधारित है, तब देखना आरम्भ किया और एकदम से बंध सा गया, उस घटना की भयावहता को अतिरंजकता से बचते हुए भी पर्याप्त गम्भीरता से दर्शाया गया है जो वाकई रोंगटे खड़े कर देता है। पुलिस की जांच और छोटे से छोटे सुराग के सहारे रात दिन दौड़ भाग करके अपराधियो तक पहुंचने की प्रक्रिया इतनी जबरदस्त है कि बिना किसी ड्रामे के भी आप दम साधे देखते रह जाते है। यह निस्संदेह ही इस साल की अब तक कि बेस्ट वेब सीरीज है यह कहना कोई अतिशयोक्ति नही होगी। फिल्मांकन और प्रस्तुतिकरण इतना चुस्त और रोमांचक है कि कब 7 एपिसोड्स समाप्त हो जाते है पता ही नही चलता, विक्टिम की पीड़ा, उससे जुड़े लोगों की बेबसी, पुलिस टीम की जांच, दिन रात अपने हालातों और परिस्थितियों से समझौता करते हुए असली अपराधियो तक पहुंचने के लिये बेचैनी से आप खुद ब खुद जुड़ जाते है, सीरीज के अंत तक आप खुद ब खुद पुलिस के प्रति अपनी नकारात्मक सोच में थोड़ा तो बदलाव अवश्य महसूस करते है । यह मत समझिये कि यह कोई डॉक्यूमेंट्री या नीरस ड्रामा है, नही कतई नही, यह एक तेज रफ्तार सीरीज है जिसके पहले एपिसोड से ही आप इसके अंत के लिये बेचैन हो उठते है।
बाकी इसका सशक्त पहलू इसके कलाकार भी है, हर छोटे से बड़े करेक्टर ने अपने चरित्र को इतनी सजीवता से जीया है कि लगता ही नही वे एक्टिंग कर रहे है, बिना किसी बनावटी या ओवर ड्रामेटिक दृश्यों के बगैर भी हर करेक्टर अपनी स्वतंत्र छाप छोड़ता नजर आता है।
वैसे वेबसिरिज ट्रेंड में आने से एक बात तो अच्छी हुई है और वह यह कि न जाने कितने ही भुला दिए गए और कमतर आंके गए कलाकारों को उनकी क्षमता दिखाने का एक सही प्लेटफॉर्म और अवसर प्राप्त हुआ है।
मैं रेटिंग वगैरह नही दे सकता, बस इतना कहूंगा मौका मिले तो देख लीजिये, निराश नही होंगे।
अंत मे मन मे कहीं एक प्रश्न अवश्य रह गया, इस भयानक कांड में सम्मिलित सारे अपराधी बेहद गरीब तबके और छोटे क्षेत्रों से संबंधित थे, इसके बावजूद उन्हें पकड़ने और चार्जशीट दायर करने में सारे पुलिस महकमे के दांतों तले पसीना आ गया, यदि इनके बजाय अपराधी रसूख और पैसेवाले होते तब क्या हालत होती ? इसके प्रमोशन में एक टैगलाइन प्रयुक्त की जाती है, केस जिसने सारे देश को बदल कर रख दिया।
लेकिन क्या वाकई कुछ बदला नजर आता है?

सोमवार, 31 दिसंबर 2018

तुंगनाथ-चोपता यात्रा-4 ( अंतिम भाग )

पिछले 3 भागो की श्रृंखला में मैंने ऋषिकेश से चोपता और चोपता से तुंगनाथ की 
ट्रैकिंग और उसमे आई कठिनाइयों का वर्णन किया, जिसमे बाघ का देखा जाना,
रिवर राफ्टिंग के पहले 

 जिसके पश्चात रात्रि ट्रैकिंग की योजना खारिज कर देना, माइनस तापमान,सड़क पर 
बर्फ जमी होने के कारण 3 किलोमीटर अधिक ट्रैक करना, ऑक्सीजन की कमी और एक
 से डेढ़ फीट बर्फ के कारण हुई थकान, खराब मौसम और कम समय के कारण तुंगनाथ जाकर भी 
चंद्रशिला की योजना खारिज करना, वापसी में दोनो कलाइयां और पीठ तुड़वा कर पस्त होना 
इत्यादि का सविस्तर वर्णन किया। जिसे आप तुंगनाथ-चोपता यात्रा-1तुंगनाथ-चोपता यात्रा-2 और 
तुंगनाथ-चोपता यात्रा-3 पर क्लिक करके पढ़ सकते है 
तुंगनाथ से वापस आते ही हमने अपने कैम्प से चेक आउट किया , वे रोकते समझाते रह गए की 
रात्रि में गाड़ियां देवप्रयाग से आगे नही जा पाएंगी इसके बावजूद हम नही माने और उनकी 
बेहतरीन सुविधा और सेवा के लिये सबके गले मिलकर धन्यवाद दिया। 
शाम होते ही फिर वही हाड़ गला देने वाली ठंड आरम्भ हो गई जो हमने आते समय महसूस की थी, 
कांपते हुए किसी प्रकार मैंने अपना रकसैक गाड़ी की डिक्की में रखा, गौरतलब है की दिल्ली में 
हमारे पास तीन बैग्स भरकर सामान थे, साली जी की एक ट्रॉली बैग, श्रीमती जी का बैग और
 मेरा 70 लीटर का रकसैक जो मैंने हाल ही में यात्रा के लिये ही खरीदा था। दिल्ली से हरिद्वार,ऋषिकेश
 और चोपता आने पर हमें तीनो बैग लाने पड़ते जो काफी असुविधाजनक होता। 
तो मैंने सबके दो-दो।एक्स्ट्रा कपड़े और जरूरत का साहित्य केवल अपने रकसैक में रखने के लिये कह 
दिया था जिससे केवल एक रकसैक में तीनों का काम हो जाता और कठिनाई भी नही होती।
हम दिल्ली के जिस होटल में ठहरे थे वही अपने बाकी दोनो बैग्स छोड़ दिये, 
उस होटल में मेरे साले साहब की पहचान थी जिस कारण बैग वहां सुरक्षित थे और
 हमारे जाने के पश्चात साले साहब बैग्स कलेक्ट करके अपने घर पर रख देते जो दिल्ली में ही है। 
खैर इस यूटिलाइजेशन का मुझे बड़ा लाभ हुआ, क्योकि केवल एक रकसैक कंधे पर टांगे घूमना 
कही ज्यादा सुविधाजनक और आरामदेह था बजाय तीन सूटकेस नुमा बैग लटकाए।

 यदि आपको कम समय मे अधिक और लम्बी यात्राएं करनी हो तो कोशिश कीजिये के 
आपके पास बोझ कम हो, फैशन के चक्कर मे पड़ने के बजाय केवल काम के और उपयोगी कपड़ों 
को ही तरजीह देना चाहिए, इससे आप पर अनावश्यक थकान और बोझ नही पड़ता और यात्रा सुगम होती है।
अब हम गाड़ी में थे, शाम के 6 बज रहे थे, लेकिन अंधेरा इतना घना हो चुका था मानो रात 
के बारह बज रहे हो, पहाड़ों में वैसे भी समय का अंदाजा नही लग पाता। मैं तो चोपता में आकर दिन 
और तारीख तक भूल गया था। ड्राइवर बार बार समझाते रहे के हमे रुक जाना चाहिए था,
 मैंने समझाया कोई बात नही, यदि चेक पोस्ट वाले देवप्रयाग पर रोक देंगे तो वही होटल में रुक जाएंगे 
और घाट पर भी चले जायेंगे। 
इसी बीच साले साहब का फोन आया के वे दिल्ली से हरिद्वार पहुंचने वाले है, वे इतने वर्षों से 
दिल्ली में है इसके बावजूद हरिद्वार,और ऋषिकेश से पूर्णतया अनजान है। 
मुझे हैरानी तब हुई जब पता चला के उन्हें हर की पौड़ी और राम झूला,लक्ष्मण झूला तक के नाम नही पता।
 खैर मैंने उन्हें हरिद्वार बस स्टैंड से ऋषिकेश के लिये बस पकड़ने का सुझाव दिया और लक्ष्मण झूला वाले
 इलाके में होटल बुक करने के लिये कहा।
दिल्ली से हरिद्वार आने का सबसे बुरा अनुभव रहा, एक तो हम 11 घण्टे में पहुंचे, 
दूसरे हरिद्वार में ऑटो वालो ने लूट मचा रखी थी, हम जहां उतरे थे वहां से हर की पौड़ी मात्र 3 किमी 
था लेकिन ऑटो वाले 700 से 1000 तक का मुंह फाड़ रहे थे, दूसरी परेशानी यह हुई के 
ऋषिकेश और हरिद्वार में ओला वगैरह नही चलती, बस मैप ही एक सहारा है। 
किसी प्रकार एक साइकल रिक्शा वाले अंकिल ने हमे मुख्य चौराहे तक पहुंचाने के 
लिये कह दिया जहा से किफायती दाम में ऑटो मिल जाती। व्वे बुजुर्ग थे तो मैं रिक्शा
 में बैठने के बजाय श्रीमती जी और साली जी को बिठा कर उनके पीछे पैदल ही निकल चला, 
रास्ते मे कई बार मैंने उनसे साइकिल चलाने का आग्रह किया लेकिन वे नही माने तो भाई हमने
 दो किमी उन्हें साइकिल पीछे से धकेल कर सहायता प्रदान की। वे रास्ते भर ऑटो और वैन वालो 
को गरियाते रहे के लूट मचा रखी है, धर्म की नगरी में अधर्मी यही तो है, श्रद्धालु एवं अनजानों को लूटते है,
 भगवान सब देख रहा है, केदारनाथ ऐसे ही नही बहा था, पाप यहां भी बढ़ रहा है, गंगा मैया
 ही अब सब ठीक करेंगी किसी दिन। 
खैर जहां उन्होंने रोका वहां से मोलभाव करने के पश्चात एक ऑटो वाला 150 में तैयार हो गया
 होटल तक जो गीता भवन के पास ही कही था। जब हम रास्ते मे निकले तब पाया के उसके चार्जेस वाजिब थे, 
मुख्य चौक से हमारे होटल तक का अंतर 7 किमी था। और पूरा रास्ता एकदम निर्मानुष्य भी था।
हरिद्वार का यह अनुभव अब तक मेरे जेहन में था। खैर अब हमारी कैब पूर्ण गति पर थी, 
संयोग अच्छा रहा के जाते समय कही रोड कटिंग और ट्रैफिक नही मिली और हम जस्ट फाटक बंद होते 
होते देवप्रयाग पहुंचे। फिर भी चेक पोस्ट वालों ने आगे बढ़ने देने से मना कर दिया, 
माँ गंगा, हरिद्वार, हर की पौड़ी 

ड्राइवर ने बहुत आग्रह किया वे नही माने तो मैं खुद गया और उनसे निवेदन किया हम काफी दूर से आ 
रहे और बहुत दूर जाना है, ऋषिकेश पहुंचना अत्यंत आवश्यक है, चोपता में अत्यधिक ठंड से तबियत 
भी खराब हो चुकी है तो हम यहां इस ठंड में नही रुक सकते, उस समय वाकई मुझे तीव्र बुखार हो चुका था,
 पता नही अफसर के मन मे क्या आया की उन्होंने गाड़ी नम्बर और ड्राइवर की पूर्ण जानकारी 
दर्ज करके हमे जाने दिया। 
अब गाड़ी सरपट थी, आते समय जहाँ हमे 11 घण्टे लगे थे, जाते समय हम 8-9 घण्टे में ही पहुंच गए थे,
 साले जी ने लक्ष्मण झूला के समीप ही होटल बुक कर लिया था, मुझे लोकेशन मिल चुकी थी 
तो कैब सीधे होटल तक ले गए और उनकी पेमेंट करने के पश्चात होटल में प्रवेश किया। 
साले जी अब साथ थे, मेरे मुंह से अत्यधिक थकान के कारण बोल न फुट रहे थे, 
सम्पूर्ण शरीर दर्द कर रहा था, बुखार के कारण आंखे मानो जल रही थी, कमरे में पहुंचकर मैंने 
बिना एक शब्द कहे बैग पटक दिया और जल्दी से कपड़े बदल कर बिना हाथ मुंह धोए ही बेड पर जा गिरा, 
साले जी मेरा ऐसा रूखा व्यवहार देखकर दुखी हो गए, मैंने बस इतना ही कहा के अभी बात
 करने की हालत में नही हु।
और उसके पश्चात मैं फौरन सो गया, अपनी 31 साल की जिंदगी में मुझे याद नही की मैं कब
 बिस्तर पर पड़ते ही एक मिनट के भीतर सो गया था, वो तो श्रीमती जी ने जबरन क्रोसिन खिलाने के
 लिये जगा दिया। अगली सुबह भी नौ बजे उठा तब थोड़ा सही लगा, बुखार उतर चुका था, साले जी से
 जी भर कर बात चीत की और उन्हें चोपता की थकान भरी यात्रा और अपने चोटिल होने की पूरी कहानी बताई,
 साथ ही साथ पुनः साली साहिबा को धन्यवाद दिया जो उन्होंने मेरी इतनी सहायता की जिसके बगैर मेरा
 वापस लौटना एक स्वप्न ही था। 
अब यहां आकर साली जी को एडवेंचर करने थे, वे रिवर राफ्टिंग के लिये उत्साहित थी। 
मेरे दोनो हाथ दुख रहे थे, एक कलाई में सूजन भी थी, तो मैं रिवर राफ्टिंग नही कर सकता था,
 वैसे मैं करना भी नही चाहता था। मुझे डर लगता था।
तब साली जी ने अपने भाई को इसके लिये तैयार किया, जब साली जी तैयार होने चली गई तो साले 
साहब ने पूछा ये रिवर राफ्टिंग में क्या होता है जीजा जी? मैंने उन्हें यूट्यूब पर वीडियोज दिखाए तो 
उनके होश फाख्ता हो गए। जब साली जी आई तो वे मिन्नते करने लगे की मत जाओ, बहुत खतरनाक है, 
पैसे भी दो और जान भी जोखिम में डालो यह कहा कि समझदारी है? वे अकेले ही जाने के लिए तैयार हो गई,
 उन्हें हर हाल में रिवर राफ्टिंग करनी ही थी।
अब भला उन्हें अकेले कैसे जाने देता तो मरता क्या न करता सोचकर मैं तैयार हो गया ।
फिर हमने नीचे एक एजेंसी से बात की, 500 रुपये प्रति व्यक्ति के हिसाब से बात तय हुई, 
एजेंसी में विविध प्रकार के एडवेंचर स्पोर्ट्स के कैटलॉग और तस्वीरें लगी हुई थी।
साली जी वही देख रही थी, और मैं मना रहा था की भगवान करे
ये बस रिवर राफ्टिंग तक ही सीमित रहें, लेकिन वे बंजी जम्पिंग वाले कैटलॉग पर आकर रुक गई।
'बंजी जम्पिंग' भी करना है। उन्होंने कहा तो मेरे पसीने छूट गए।
साली साहिबा की जिद के चलते आखिरकार उनके साथ हमे भी उस चोटिल अवस्था मे रिवर राफ्टिंग के लिये तैयार होना पड़ा।  साले जी ने पहले ही हाथ खड़े कर दिए थे के उनसे न हो पायेगा, और श्रीमती जी का स्वास्थ्य उन्हें इस चीज की इजाजत नही देता था, तो एक एजेंसी द्वारा रिवर राफ्टिंग की बात तय हुई और पेमेंट कर दी गई।
 साले जी और उनकी बहन अर्थात श्रीमती जी ने हमारी अनुपस्थिति में लक्ष्मण झूला एवं राम झूला 
घुमने की योजना बनाई। मुझे और साली जी को राफ्टिंग में लगभग ढाई घण्टे लगने थे, वे बंजी 
जम्पिंग करने के लिये भी तैयार थी।
अब उन्हें मैं अपनी जिम्मेदारी पर लाया था तो उन्हें अकेले नही जाने दे सकता था, 
इसलिए उनके हर एडवेंचर में मेरा साथ रहना आवश्यक ही था। रिवर राफ्टिंग तक सही था 
लेकिन बंजी जम्पिंग का मूड देख कर मेरे होश फाख्ता हो गए।
मैंने बहाने मारने आरम्भ कर दिए, यार 3500 ले रहे एक आदमी का बंजी जम्पिंग के लिये, 
ये तो पैसों का वेस्टेज है।
3500 भी दो और और पहाड़ से उल्टे लटक कर भी कूदो, यह कहां तक सही है?
वे बोली पहले राफ्टिंग करते है फिर तय करेंगे। तो हम राफ्टिंग के लिये एजेंसी द्वारा दी गई 
जिप्सी में निकल लिए, हमारा राफ्टिंग पॉइंट हमारे होटल से 16 किमी दूर था। इसी बीच जिप्सी 
में केवल महिलाएं ही दिखाई देने लगी, तब पता चला ये हमारी टीम में है। यानी इस राफ्टिंग में केवल एक 
मैं पुरुष सदस्य था। गाइड को यदि न गिना जाये तो।
कुछ देर बाद हम राफ्टिंग पॉइंट पर पहुंचे, हमारे समक्ष साफ स्वच्छ गंगा की लहरें थी, 
इतना स्वच्छ पानी वह भी बहती नदी का , मैंने और साली जी ने पहली बार ही देखा था।
तब तक जिप्सी पर से राफ्ट उतार दी गई, और हमे लाइफ जैकेट्स और हेलमेट्स पहना दीये गये। 
हमने वहां यादगार के लिये कुछ तस्वीरें खींची। 
गाइड ने हमे राफ्ट और पैडल के प्रयोग के विषय मे जानकारी प्रदान की और कुछ आवश्यक निर्देश भी दिए,
 जिसके अनुसार पूरी राफ्ट की जिम्मेदारी हमारी थी। हमे ही चलाना था और हमे ही गंतव्य तक पहुंचाना भी था। 
जब गाइड ने कहा के सबसे आगे वाले व्यक्ति पर सम्पूर्ण राफ्ट की जिम्मेदारी होगी और वही प्रमुख चालक होगा,
 तब मुझे पता चला के गाइड सबसे पीछे बैठ कर बस निर्देश देगा। अब तक मैं समझ रहा था राफ्ट वही चालएगा, 
तो मैंने ठान लिया के मैं तो मध्य में बैठूंगा।
लेकिन उस टीम में बस महिलाएं ही थी, केवल गाइड और मैं ही पुरुष थे, जिसमे से गाइड भाई 
पहले ही सबसे पीछे बैठने की बात कहके खिसक लिए। गाइड ने कहा की आप सबमे से सबसे मजबूत 
और प्रबल सदस्य आगे बैठ जाये।
तो सबकी सब महिलाओं ने एक साथ मेरी ओर ही देखा। एक ने तो कह भी दिया, आप ही
 सबसे मजबूत और पहलवान टाइप हो, हमारी जिम्मेदारी अब आपके ऊपर है।
मैंने सोचा के कहां फंस गया, एक तो यार मैं राफ्टिंग के लिये भी साली जी के कारण जबरदस्ती आया, 
और आया भी तो अब मुझे ही लीडर शिप करनी थी। 
साली जी ने छेड़ा भी, और बनो हीरो हाफ टी शर्ट पहन कर।
तभी मेरे सामने एक राफ्ट लहरों के मध्य कई फ़ीट तक उछली, जिसे देख कर हम सबकी ऊपर 
की सांस ऊपर और नीचे की सांस नीचे रह गई।
साली जी ने कहा आप फिक्र ना करो, मैं आपके साथ आगे बैठती हु। तब थोड़ी हिम्मत आई और हमने हाई
 फाइव किया और हर हर गंगे कहकर राफ्ट में बताए निर्देशानुसार बैठ गए। धीरे धीरे हमारी राफ्ट किनारे से
 हट कर अब सीधे गंगा मैया की गोद मे थी। 
पानी तो अत्यधिक ठंडा था, और राफ्ट शुरू होते ही भारी लहरों के मध्य इस प्रकार हिचकोले खाई के
 एक संपूर्ण लहर राफ्ट के मध्य प्रवेश करके हम सबको पूर्णतया भिगो कर चली गई।
पूरे बदन में झुरझुरी सी दौड़ गई, इसी प्रकार और भी अनेक लहरों से टकराकर राफ्ट आगे बढ़ी।
मैं अपनी पूरी शक्ति से पैडल चलाता था, किन्तु मेरी टीम की महिलाएं इस मामले में फिसड्डी साबित हुई, जब तक मैं चार बार चप्पू चला लेता तब तक उनका एक राउंड भी ठीक से नही हो पाता था।
हमारी राफ्ट इस बिगड़े तालमेल के कारण घूमने लगी। तब गाइड जी ने महिलाओं को एक लय से पैडल चलाने के निर्देश दिए, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात।
अब हुआ यह के पूर्ण शक्ति से पैडल चलाने के कारण मेरे कंधे दुखने लगे, पीछे वाली टीम से कोई सहायता प्राप्त नही हो रही थी, बस केवल साली जी थी जो पूरी शक्ति लगा रही थी, जिनकी वजह से मैं राफ्ट को दिशा देने में सफल हो रहा था।
शीघ्र ही मैं थक कर चूर हो गया। 
और उसी पल गाइड ने चप्पू रोकने के निर्देश दिए, अब हम सब शांत बैठे थे।
गंगा अब एकदम शांत थी, पहाड़ और जंगलों के मध्य इस निर्मल और स्वच्छ प्रवाह में बहना एक दिव्य अनुभूति सी थी। बीच बीच मे लहरों के कारण ठंडे जल की बूंदे हमे अवश्य भिगो जाती। गाइड ने इसी मध्य हमे बताया की जिसे पानी के मध्य कूदना हो वे राफ्ट की साइड में लगी रस्सियों को थाम कर कूद सकते है।
मैं तो कतई राजी नही था, लेकिन ग्रूप की दो एक लड़कियों ने इच्छा जताई और कूद गई। ये वही थी जो एक चप्पू चलाने में हांफ जाती थी और कूदने की बारी आई तो फौरन कूद गई।
साली जी ने भी पूछा मैं भी कुदू? जैसे मेरे कहने पर वे रुक ही जाती। मैंने हा कह दिया तो वे कूद पड़ी।
अब मुझे भी कूदना ही था, तो महादेव और गंगा मैया का नाम लेकर मैं भी कूद पड़ा।
कूदते ही मानो सीने से नीचे सम्पूर्ण शरीर एकदम से सुन्न हो गया। पानी अत्यधिक ठंडा था, जिस कारण निचला शरीर पूर्ण रूप से सुन्न सा होता प्रतीत हुआ। लेकिन यह मात्र कुछ सेकंड्स तक रहा, धीरे धीरे उस तापमान का आदि होने के बाद हमने खुद को राफ्ट के हवाले कर दिया। 
अब पानी मे छाती तक डुबे हम गंगा में बह रहे थे, मैं आंखे बंद कर इस अनुभव को समेट रहा था, शुरू में भले डर लगा लेकिन अब इसमें आनन्द आने लगा था। 
मन ही मन साली साहिबा को धन्यवाद दिया की उनकी जिद के ही कारण सही किन्तु कम से कम यह अनुभूति प्राप्त करने का अवसर तो मिला।
काफी देर तैरते रहने के पश्चात गाइड ने हमे पुनः राफ्ट में खींच लिया, अब भीतर का डर पूर्णतया गायब हो चुका था।
लहरे तेज होने लगी थी, राफ्ट उछलने लगी। लेकिन अब लहरों का डर खत्म हो गया था, और हमारे चप्पू तेज चलने लगे, कहने की बात नही के इसमे केवल मैं और मेरी पार्टनर ही सबसे अधिक मेहनत कर रहे थे। 
एक जगह आकर पुनः कूदने को कहा गया, साली जी पुनः कूद पड़ी लेकिन अब मेरी कूदने की इच्छा नही थी, मैं बस कुछ क्षण उस प्रवाह में शांत रहना चाहता था। कुछ देर पश्चात लक्ष्मण झूला दिखने लगा, अब हम निर्धारित तट की ओर बढ़ रहे थे।
राफ्टिंग समाप्त हो चुकी थी, करीब डेढ़ पौने दो घण्टे की राफ्टिंग वाकई में एक जबरदस्त और अद्भुत अनुभव था।
मैं यह भी भूल गया था की अभी एक दिन पहले तुंगनाथ ट्रैक के दौरान मेरी दोनो कलाइयां मुड़ चुकी थी।
ट्रैकिंग की पूरी थकान अब उतर चुकी थी।
इसी बीच साले जी का फोन आया, वे राम झूला घूम चुके थे मैंने आधे घण्टे में आने का आश्वासन दिया और जिप्सी में बैठ गया। 
कुछ ही देर में हम होटल में थे, जहां हमने कपड़े बदले और श्रीमती जी और साले साहब की प्रतीक्षा करने लगे।
हरिद्वार, हर की पौड़ी में
यह बात अच्छी हुई के साली साहिबा बंजी जम्पिंग के विषय मे एकदम से भूल ही गई, और मैं तो याद दिलाने वाला ही नही था।

वे लगभग आधे घण्टे में आये, तब योजना बनी की पहले लक्ष्मण झूला चलते है, कुछ खाते है और सीधे हरिद्वार चलते है, हर की पौड़ी पर गंगा आरती देखनी है।
हम अब लक्ष्मण झूला पर थे, सामने ही 13 मंजिला मंदिर था जो हमेशा तस्वीरों एवं फिल्मो में देखता आ रहा था। लेकिन कल की ट्रैकिंग और ट्रेवलिंग के बाद इतनी शक्ति नही थी की 13 मंजिला मंदिर चढ़ सके तो वही घाट पर घूमने के पश्चात हमने एक होटल में कुछ खाया। 
खाना तो वाहियात ही था, आधा मूड वही खराब हो गया। मुम्बई से निकलने के पश्चात बस चोपता में ही सही खाना मिला था, बाकी जगह तो काम चलाऊ कह सकते है।
खैर अब समय हो रहा था, 5 बज रहे थे और हमे जल्द से जल्द हरिद्वार पहुंचना था, ऋषिकेश के ऑटो वाले भी लूटने के मामले में हरिद्वार वालो से पीछे नही थे। 
हमे कोई 1000 कहता तो कोई 800, हमने कहा भाई आप जो किराया है वह लो, हम रिजर्व नही कर रहे पूरी ऑटो। आप और सवारी भी लीजिये। वे नया जानकर बेवकूफ बनाने का प्रयास करते रहे, लेकिन हम बेवकूफ तो थे नही।
आखिरकार होटल के थोड़ा आगे एक ऑटो स्टैंड था जहा से हर की पौड़ी रेगुलर जाती थी, वहां बात किये तो 400 कहने लगा, हमने कहा प्रति व्यक्ति किराया लेना है तो लो वरना जाने दो।
वरना आरती तो हम परमार्थ आश्रम की ही देख लेंगे।
आखिरकार ऑटो वाले ने मानक किराया बोला 60 रुपये प्रति व्यक्ति, जो कि 50 रुपये प्रति व्यक्ति होता है। ऑटो के भीतर किराए की सूची लगी हुई थी जहां हर की पौड़ी का किराया खुरच दिया गया था। लेकिन अब समय नही था तो हम बैठ गए, तकरीबन पौने या एक घण्टे के बाद हम हर की पौड़ी पहुंच चुके थे। हम गंगा घाट पर पहुंचे, मैंने श्रीमती जी, साली जी और साले जी को निर्देश दिए की घाट पर किसी प्रकार के कर्मकांड में ना पड़े। और ना ही किसी पंडे वगैरह के चक्कर मे पड़ें।
एक धागा या एक आरती भी सीधे 500 का चूना लगा सकती है। श्रद्धा मां गंगा में रखो कर्मकांडो में नही।
उन्हें पर्याप्त निर्देश दिए। और वही हुआ, हर कदम पर कोई ना कोई धागा बांधने वाले, आरती दिलवाने वाले, प्रसाद बांटने वाले मिलने लगे, चूंकि हम पहले ही सावधान थे इसलिये किसी के चक्कर मे नही पड़ें।
यहां आकर पता चला आरती समाप्त हो चुकी है, थोड़ी निराशा हुई लेकिन फिर यह सोचकर रह गया की आरती वगैरह तो बहाना है, असली श्रद्धा और भावना तो माँ गंगा का यह प्रवाह और इसका सानिध्य है, हम घाट पर काफी देर बैठे रहे। 
थोड़ा अफसोस अवश्य था लेकिन गंगा की शीतल लहरों ने जल्द ही सब भुला दिया। 
इसी मध्य श्रीमती जी की इच्छा हुई गंगा में दीप एवं फूल प्रवाहित करने की।
मैंने उन्हें समझाया माँ गंगा को इन सबकी आवश्यकता नही है, उसे स्वच्छ रखो यही पर्याप्त है, फूल पत्तियां दीये बहाकर हम उसे क्यो गंदा करें ? जो गंगा हमे हरिद्वार, ऋषिकेश, देवप्रयाग से इतनी सुंदर और स्वच्छ दिखती है, वह बनारस और प्रयागराज आकर इतनी मैली क्यो दिखती है, यही सब छोटे छोटे कर्मकांड वगैरह ही है जो उसे अस्वच्छ बनाते है, और यहां विभिन्न बोर्ड्स पर लिखा भी है, गंगा को स्वच्छ रखे वही उसकी सच्ची पूजा है। तो यही मान लो। 
फिर भी मैंने एक बार उनका मन रखने के लिये दिये लाने का विचार किया तो उन्होंने ही मना कर दिया।
काफी देर बैठने के पश्चात हमने मुख्य सड़क से अपने होटल की ओर एक ऑटो की और हरिद्वार से निकल लिये।
अगले दिन प्रातः हरिद्वार से दिल्ली के लिये ट्रेन थी तो ज्यादा।समय नही था, माँ गंगे से जब भी अवसर मिलेगा पुनः भेंट देने का निश्चय लेकर हमने विदा ली।
उसके बाद हम 3 दिन दिल्ली रहे, लेकिन हमारे जेहन में बस चोपता-तुंगनाथ-हरिद्वार-ऋषिकेश और उत्तराखंड के पहाड़ और ठंडी हंवाये ही थी। अब मुम्बई पहुंच चुका हूं,लेकिन अब भी महसूस होता है मानो मेरा कुछ हिस्सा वही छूट गया है।
भगवान महादेव और माँ गंगा को धन्यवाद देना चाहूंगा जिनके आशीर्वाद के कारण एक साल से अनेक बार बनते बिगड़ते मेरी यह योजना अंततः सफल हुई, इस योजना को सफल बनाने में मेरी श्रीमती जी, मेरी बच्ची अर्थात मेरी ट्रैकिंग और एडवेंचर पार्टनर साली जी, और साले जी का भरपूर योगदान है। 
अनेकों छोटे मोटे झगड़ो, मनमुटावों के बावजूद आखिरकार हम सब एक साथ थे।
एक साथ हमने अनेक अविस्मरणीय अनुभव किये। इस यात्रा ने कभी न मिट सकने वाली एक अमिट छाप हमारे मन मस्तिष्क में छोड़ दी। और हमारे रिश्तों में संबंधों में और अधिक प्रगाढ़ता और अपनापन बढ़ाया। ईश्वर हमारा साथ यू ही बनाये रखे जिससे हमें जल्द ही पुनः नई योजनाओं पर साथ कार्यरत होने का अवसर प्राप्त हो। साल का इससे बेहतर अंत नही हो सकता था मेरे लिए।

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