सोमवार, 3 फ़रवरी 2020

चोपता से कार्तिक स्वामी की यात्रा 3

 

अपनी चोपता दिसम्बर यात्रा के पिछले भागों में मैंने भारी बर्फबारी एवं बन्द रास्तों के बावजूद कैसे चोपता पहुंचा उसका वर्णन किया है। सोशल मीडिया से मिले बनारस के दो छात्र मेरी इस यात्रा के साथी बने थे। भाग 1,  भाग 2
हम घुटनों तक बर्फ में डूबे हुये तुंगनाथ मार्ग पर चलते रहे, लगभग एक से डेढ़ किलोमीटर बर्फीला रास्ता पार करके हम उस स्थान पर पहुंचे जहां से केदारनाथ,केदारनाथ डोम, सतोपंथ एवं चौखम्बा पर्वतश्रृंखला अपने विशाल स्वरूप में दिखाई देते है। इस स्थान पर एक होटल था जो इस समय बर्फ में पूर्णतया डूबा हुआ था, मेरी पिछली यात्रा के दौरान जब वापसी में मेरे कसबल ढीले हुये थे तब हमने यही पर चाय और मैगी खाई थी, उस होटल के सामने ही सीधी चढ़ाई वाला वह स्थान था जहां पिछली बार मैं और मेरी साली जी बुरी तरह फंस गए थे, जहां से वे मुझे लगभग लादते उठाते वापस लाइ थीं। वह शॉर्टकट था, सीधा रास्ता समतल था लेकिन इस समय वह बर्फ में इस कदर धंस गया था कि उसका दिखाई देना ही सम्भव नही था।
यश और केशव फोटोग्राफी में व्यस्त थे, उसी समय एक अजीब सी आवाज सुनाई दी, पहले तो मेरा वहम समझ कर नजरअंदाज कर दिया किन्तु वह आवाज फिर गूंजी तो मैंने सबको पैकअप करने के लिये कह दिया। 
यह निस्संदेह भालू की आवाज थी, उस वातावरण का प्रभाव था या सच मे मैंने भालू का स्वर सुना यह कह नही सकता, किन्तु आवाज स्पष्ट थी और मेरे अलावा यश और केशव ने भी सुनी थी इसलिये संदेह का कोई प्रश्न ही नही उठता था। वे डर गए मैं नही डरा कहूंगा तो झूठ ही कहूंगा क्योकि वहां उस यात्रा में सारे रास्ते मे केवल हम 3 ही व्यक्ति थे। वैसे भी जहां हम खड़े थे वहां से तुंगनाथ तक का मार्ग एकदम बंद दिखाई दे रहा था। तो हमने लौटने में कोई हर्ज नही समझा और उल्टे पांव तेजी से वापस जाने लगे, रास्ते मे यश भाई अनेक बार गिरते रहे, बर्फ में धँसते रहे, हम तीनों की नजरें चौकस थी, वृक्षों की गिरी हुई शाखाओं से हमने कुछ मजबूत डालियां तोड़ कर अपने साथ ले ली, यह किसी भी तरह की अकस्मात स्थिति से बचने के लिये बचकानी तैयारी थी, रास्ते भर हमारी नजरें जहां सी आहट ,पत्तो को सरसराहट और बर्फ गिरने की आवाज पर चौंक जाती। रास्ता अब भी काफी दूर था, मुझे बर्फ में कदमों के निशानों के मध्य लाल रंग के कुछ धब्बे दिखाई दे रहे थे जिसे मैंने केशव को बताया लेकिन उन्होंने गंभीरता से नही लिया। मुझे यही लगा शायद हमसे पहले आये किसी यात्री के पैरों में चोट लगने से यह धब्बे बने हो। 
आधा किलोमीटर जाते ही एक दल आता दिखाई दिया, वे चार पांच लड़के थे, सभी उत्तराखंडी ही थे। हम वापस जा रहे थे तो सोचा इन्हें भी आगाह कर दे।
उनमे से एक को हमने बताया कि आगे रास्ता नही है, हमने भी बहुत प्रयास किया और दूसरी बात हमे भालू की आवाज भी सुनाई दी है, आपको मना नही कर रहा किन्तु सावधान रहिएगा। उनपर शायद ही हमारी बात का असर हुआ हो, वे आगे बढ़ गए। उनके आगे बढ़ते ही मेरे मन मे आया कि यदि ये इस बर्फ में जा सकते है तो हम क्यो नही? इतनी दूर आकर, इतनी बर्फ में डेढ़ दो किलोमीटर चढ़कर क्या वापस आने के लिये आये है? आगे तो भालू का और बर्फ का डर था लेकिन अब तो कुछ लोग और है तो क्यो न प्रयास किया जाए, मैंने केशव को अपनी योजना बताई उसके उत्साह में बिल्कुल कमी नही आई थी। वह जोशीला लड़का था, यश भाई उसके विपरीत थे, वे जल्दी थक जाते और चिड़चिड़े हो जाते थे, हमने वापस जाने का कहा तो उनका मुंह बन गया। लेकिन हम फिर आगे बढ़े तो वो भी साथ चल दिये, कुछ ही देर में हम उस स्थान तक पहुंचने वाले थे जहां से वापस आये थे कि हमने देखा यश जी बहुत पीछे छूट गए है, उनके साथ दल के दो लोग भी थे, उन्होंने से किसी ने चीख कर कहा आपके दोस्त के पांव में से खून निकल रहा है।
हम भौंचक्क रह गए, अब तो वापस जाना ही था किसी को भी ऐसी हालत में लेकर या उसे छोड़कर जाना हमारी यात्रा और संवेदनशीलता को स्वीकार्य नही था, हम बर्फ चीरते हुए वापस लगभग 400 मीटर पीछे गए और यश भाई से जूते उतरवाए, उन्हें कुछ भी नही पता चल रहा था और न ही किसी प्रकार का दर्द हो रहा था। बर्फ में अत्यधिक ठंड में त्वचा संवेदनाहीन हो जाती है यह मैं जानता हूँ किन्तु यहां इस माहौल में भी ऐसा हो सकता है यह जानकर मैं अचंभित और घबराया हुआ था। जब जूते खोले तो भाई साहब के दोनो पैर सही सलामत, एक भी खरोंच नही।
फिर मैंने जूते देखे तो बड़ा गुस्सा आया कि जूतों के सोल का रंग हल्का लाल था जो यहां वहां छप जा रहा था।
हमे यश भाई पर बड़ा गुस्सा आया कि कैसे व्यक्ति है जो यह नही समझ सकता कि उसे चोट लगी है या नही,उनके चक्कर मे फिर से हम इतने पीछे आ गए थे कि वापस जाने के नाम पर ही दिमाग घूमने लगा था किंतु फिर भी हमने हार नही मानी और आगे बढ़ गए, इस बार रास्ता भर यश भाई को सुनाते गए, उन्हें कोई फ़र्क न पड़ना था और न पड़ा।
अब फिर हम उसी बर्फ से ढंके होटल के पास खड़े थे, हमारे आगे गए लड़के वापस आने लगे थे। मैंने उस ढलान को देखा मुझे पिछली बार की अवस्था याद आ गई, आज मैं इस ढलान को पार करके ही दिखाऊंगा, और इसी हालत में करूँगा। एक विचित्र सी जिद्द हो गई थी जबकि मार्ग में स्पष्ट रूप से बर्फ अब कमर तक होने लगी थी, मैं इस मार्ग को लेकर आश्वस्त था कि यहां मध्य में कोई गड्ढा या दरार जैसा कुछ नही है जहां फंसा जा सके या जोखिम हो, पिछली बार आने के कारण यह अच्छे से पता था इसलिये मैं आगे बढ़ गया, केशव मेरे पीछे पीछे चलने लगा। धीरे धीरे बर्फ कमर से ऊपर होने लगी, मैं ढलान के शीर्ष से कुछ ही मीटर तक पहुंचा था की बर्फ कमर से और ऊपर तक जाने लगी, दोनो हाथों से रास्ता बनाने लगा। अब शाम होने को थी, इस प्रयास में मेरे जूते, मोजे और जीन्स बुरी तरह भीग चुकी थी, शाम होते ही रास्ते मे मुश्किल आएंगी, किसी प्रकार तुंगनाथ पहुंच भी गए तो ऐसी बर्फ में वापसी असम्भव सी थी, अब ठंड बढ़ने लगी थी। मैंने अब जिद छोड़ने का निश्चय किया और अबकी बार पुनः मई में आकर दर्शन करने का निश्चय किया और वापस मुड़ गया। यश को मानो मुंह मांगी मुराद मिल गई, वापसी का सुनकर ही वो जोश में चिल्लाने लगे थे, शाम होते ही भयँकर रूप से वातावरण में गलन होने लगती जिसे हम हमारे भीगे हुए कपडों के साथ बिल्कुल सह नही पाते इसलिये समझदारी वापसी में ही थी।
अचानक मुझे प्यास महसूस हुई, यश को भी तीव्र प्यास लगी थी। बैग केवल केशव के पास थी और उसमे पानी की बोतल थी ही नही,मैंने माथा पीट लिया कि कितनी बड़ी मूर्खता थी यह कि हमने पानी की बोतल ली ही नही, मैं यश के भरोसे रह गया था और यश हमारे।
यश जोर से पछतावे भरे स्वर में बोला "भईय्या हम जरूरी चीज तो भूल ही गए,शीट!"
"और वह क्या?" मैं व्यंग्य से बोला।
"सनस्क्रीन,आपके बैग में थी। हमने उसे अपने साथ रखा ही नही।" यश ने कहा तो मुझे समझ नही आया कि क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करूँ? यार किसी बन्दे को पानी से ज्यादा सनस्क्रीन कैसे जरूरी लग सकती है? मैंने और केशव दोनो ने उसे फटकारा। उस समय एक कपल हमे आता दिखाई दिया, दोनो पति पत्नी थे और युवा थे। वे हमारी अवस्था देखकर ऊपर जाने के अपने निर्णय से मानो हिल गए थे, उन्होंने पूछा आगे कितनी बर्फ है?
"मेरे सीने तक है।" मैंने कहा, उन महिला का कद मेरे सीने से भी नीचे था तो उनके आगे बढ़ने का निर्णय एक झटके में बदल गया। इधर यश भाई प्यास के मारे गमछे में बर्फ बांध कर पानी निचोड़कर पीने के मूड में थे लेकिन उस कपल ने इसके लिये मना करके अपनी बोतल हमे दे दी, मैंने केवल यश को पीने के लिये कहा क्योकि वह थका हुआ था, एक बोतल में भला कितने पीते, आखिर जिन्होंने दिया उन्हें भी चाहिए होगा। उन्होंने हमारी सकुचाहट को भांपते हुये कहा
"आप भी पी लो, हमारे पास एक और बोतल है।" तो हमने भी दो दो घूंट ले लिये और उन्हें धन्यवाद किया, वे यही तसवीरें खिंचवाने के लिये रुकने वाले थे तो मैंने उन्हें भालू वाली बात भी बता दी कि ज्यादा देर न करें और न ही फोटो के चक्कर मे उल्टी सीधी जगहों पर जाए आगे तो जाना है नही तो जल्दी निपटाकर निकल लीजिएगा।
फिर हम आगे बढ़े और उन्ही रास्तों में गिरते पड़ते चलते रहे, इस बार मैं बिल्कुल भी नही गिरा था और ना ही कोई चोट लगी थी, तुंगनाथ तक भले ही नही पहुंचे लेकिन यात्रा रोमांचक रही। हम तीनों बर्फ में चलते चलते बुरी तरह थक चुके थे, काफी देर पश्चात हम प्रवेशद्वार पर पहुंच चुके थे। शाम हो आई थी, चारो ओर सूर्य की लालिमा फैलने लगी थी, प्रवेशद्वार के आसपास के जंगल लाल होकर दमक रहे थे, यह वही दृश्य था जिसे देखने के मैं स्वप्न देखा करता था। मैं उस दृश्य का हिस्सा बन चुका था। हमने फटाफट अपने बैग्स होटल से उठाए और अंधेरा होने के पहले आश्रय की व्यवस्था में जुट गए, जिन भाई साहब की गाड़ी हमने बर्फ से निकाली थी हम उन्ही के बताए ढाबे की ओर बढ़ने लगे।
वहां कुछ और व्यक्ति भी थे जो ट्रेकिंग के उद्देश्य से आये थे लेकिन बर्फ देखते हुए उनकी हिम्मत ही नही हुई, उन्हें उस स्थान के बारे में कोई जानकारी नही थी तो मैंने उन्हें पंचकेदार की कहानी और अपने पिछले ट्रैक्स के अनुभव बताये, हमारी बातें सुनकर एक स्थानीय दुकानदार आगे आये और मेरी ओर देखकर प्रश्न किया।
"आप कहाँ रहते है?"
"जी,मुम्बई में।"
"तभी ऐसा लगा कि आपको कहीं देखा हुआ सा क्यो लग रहा है।" उनकी बात सुनकर मैं अचंभित हो गया कि ये क्या कह रहे है? वो मुझे कैसे जानते है।
"आप सीरियल में काम करते है ना? मैंने आपको कई बार देखा है।" मैं उनकी बात पर झेंप गया, क्या प्रतिक्रिया दूं यह समझ मे नही आया,मुझे उनकी मासूमियत पर बड़ी हंसी आई, मैंने उन्हें धन्यवाद कहा और समझाया हर मुम्बईकर सिरियल में काम नही करता, आप किसी और के धोखे में मुझे समझ रहे है। फिर हम आगे बढ़े तो हमारे आगे चौखम्बा पर्वत एकदम किसी तप्त कोयले की भांति लाल होकर दहकता सा नजर आ रहा था,बाकी की पर्वतशृंखलाये भी सोने की भांति कांतिमान हो रही थी, संपूर्ण वातावरण में अद्भुत छटा फैली हुई थी, यहां तक कि मुझे इल्यूजन सा होने लगा कि शायद मैं किसी गहरे सपने में हूँ, मैंने खुद को चिकोटी भी काटी किन्तु वाकई महसूस तक नही हुई, यदि यह स्वप्न था तो मैं इस स्वप्न से बाहर नही आना चाहता था। हतप्रभ सा होकर मैं और मेरे साथी उस अद्वितीय सौंदर्य को देख रहे थे, लेकिन कुछ ही पलों तक, कुछ ही क्षणों में सूर्य अचानक से अस्त हो गए,मतलब जैसा मैदानी क्षेत्रों में होता है धीरे धीरे एक घण्टे में अस्त होते है, ऐसे नही, बल्कि एकदम एक झटके में, एक ही मिनट में अंधेरा हो गया। 
हम उस ढाबे तक पहुंचे तो हमे ढाबे के पीछे बर्फ में एकदम डूबा हुआ सा कमरा मिल गया, 1500 का बोलकर 1000 रुपये में कमरा तय हुआ, इस समय हम भाव ताव के मूड में बिल्कुल नही थे, भयँकर गलन हो रही थी, हमारे कपड़ें भीगे हुये थे, पैर भीगे जूते और मोजों से अकड़ रहे थे, यह स्थिति घातक रूप ले सकती थी इसलिये बस किसी भी प्रकार आश्रय का जुगाड़ आवश्यक था तो हम उस कमरे तक जाने लगे, उस कमरे तक जाना भी किसी एडवेंचर से कम नही था, एक डेढ़ फीट की बर्फ में सम्भलते सम्भालते हम वहां पहुंचे, कमरे में सुविधाएं न के बराबर थी जो ऐसी जगहों पर वैसे भी मिलनी मुश्किल थी। एक बेड और कम्बल ही इस समय लक्जरी थी हमारे लिये। यह कमरा ऐसे स्थान पर था जहां से सूर्योदय देखना काफी रोमांचक अनुभव रहने वाला था। कमरे में पहुंचते ही सर्वप्रथम हमने कपड़े बदले, मोजे उतारे और नए मोजे पहन कर कम्बलों में जा घुसे, केशव खाने पीने का सामान लाया था तो हमने ब्रेड, बटर,खोवा, और नमकीन खाया तो पेट भर गया।
अब समय था सोने का, सुबह जल्द ही उठना था, सूर्योदय को देखना था। यही पर कार्तिक स्वामी जाने की योजना भी बन गई। 
हम कार्तिक स्वामी भी गए, और वहाँ की यात्रा इससे भी अधिक रोमांच साबित हुई।
वह अगली श्रृंखला में.....










गुरुवार, 23 जनवरी 2020

चोपता से कार्तिक स्वामी की यात्रा 2

अपनी यात्रा के पिछले भाग में मैंने बताया था किस प्रकार से चोपता के लिये निकलते ही सूचना प्राप्त हुई कि भारी बर्फबारी के कारण चोपता जाने के रास्ते बंद हो चुके है। इसके बावजूद भी हमने अंतिम क्षण तक प्रयास करने का निश्चय किया और हरिद्वार से चोपता के लिये प्रस्थान कर गए।
हरिद्वार में ही दो लड़के मेरे साथ और जुड़ गए जो बीएचयू के विद्यार्थी थे। उनसे मेरी बात यात्रा के महीनों पहले से हो रही थी, हम फेसबुक द्वारा ही मिले थे और सहयात्री बन गए। किसी प्रकार जोड़ तोड़ करते कराते हम बर्फ में चलते पड़ते आखिरकार तुंगनाथ मुख्य द्वार तक जा पहुंचे।
उस समय दोपहर हो चुकी थी, तुंगनाथ द्वार के समक्ष स्थित मार्ग पर तीन तीन फीट बर्फ जमी हुई थी। हमारे मुंह से ठंडी भांप निकल रही थी, चूंकि दोपहर हो चुकी थी और द्वार पर कुछ पस्त पड़े ट्रेकर्स का जत्था अस्तव्यस्त और हैरान दिखाई दे रहा था तो यात्रा पूर्ण होने की संभावना काफी कम दिखाई दे रही थी। हमने उनमे से कुछ से आगे का हाल पूछा तो बताया गया कि बामुश्किल आधा किलोमीटर चलकर वे वापस आ गए, आगे बर्फ इतनी ज्यादा पड़ी हुई है कि उससे ज्यादा आगे बढ़ना सम्भव ही नही। हमने द्वार की ओर देखा वहां बर्फ का ढेर लगा हुआ था, हमारी हिम्मत टूट सी गई थी। उसी समय दो व्यक्ति कमर तक भीगे हुये ट्रेक से वापस आते दिखे, द्वारा की सीढ़ियों पर बर्फ पिघल कर जम गई थी जिस कारण भयँकर फिसलन हो गई थी। उन दोनों में से एक लड़का बेधड़क चलते हुये आया और फिसल गया , वह फिसल कर सीढ़ियों से नीचे आ गिरता लेकिन उसने गजब की फुर्ती दिखाते हुये द्वार की घण्टी पकड़ ली और बंदर की भांति झूल गया। हालांकि यह अनपेक्षित रूप से हो गया था, उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थी। हमने उसे सीढ़ियों के मध्य के बजाय किनारे से आने के लिये कहा, किनारों पर अब भी कोनो में भुरभुरी बर्फ थी जिससे फिसलन कम होती। उसने ऐसा ही किया और सकुशल नीचे आ पहुंचा। फिर उसका साथी आगे बढ़ा और वह भी फिसल कर अपने दोस्त की तरह घण्टी की जंजीर से जा लटका, उसके लटकने का अंदाज देखकर मुझे टार्जन की याद आ गई, हमारी हंसी छूट गई। वह बेचारा किसी प्रकार किनारे से होते हुये नीचे उतरा। मै अपना उपन्यास लेकर आया था, तो मैंने तुंगनाथ द्वार पर ही उसकी तस्वीर भी खींच ली।
दोपहर होती जा रही थी और हमे ट्रेक भी करना था, पिछले दिसम्बर की यादें अब तक जेहन में ताजा थी, मैं जानता था उस समय इतनी कम बर्फ के बावजूद मेरी हालत खस्ता हो गई थी तो इस समय तो बर्फ के अलावा और कुछ भी दिखाई नही दे रहा था। यात्रा आरम्भ करने से पूर्व कुछ खाना पीना आवश्यक था तो हमने द्वार के सामने स्थित ढाबे पर आलू के परांठे, मैगी और चाय पी। यश भाई खाने के मूड में बिल्कुल नही थे, वो मुंह बना रहे थे। उनके अनुसार आलू के परांठे वगैरह हैवी हो जाएंगे तो ट्रेकिंग में तकलीफ देंगे तो वो ब्राउन ब्रेड और पीनट बटर खाने की सोचने लगे जो हम साथ लाये थे। जी, हम अपने साथ खाने पीने की कुछ वस्तुएं साथ रखे हुये थे ताकि भगवान न करें यदि कहीं फंस जाए तो उस परिस्थिति में काम आ सके।
मैंने उन्हें समझाया ऐसे मौसम में कितना भी हेवी ठूंस लो लेकिन उसे पचने में कुछ ही देर लगेगी। ऊर्जा और गर्मी चाहिये तो ब्रेड बटर को मारो गोली और चापो गरमा गरम परांठे, वो न माने। मैं और केशव मजे से परांठे खाने लगे, परांठे वाकई बेहद स्वादिष्ट थे, हम मजे लेकर खाते और तारीफ करते रहे तो यश भाई भी ललचा कर बैठ गए और एक परांठा खा कर ही माने। सब खाने पीने के बाद अब बारी थी घुटनों भर बर्फ से भरे पथ पर चलने की तैयारी करने की। मैंने वुडलैंड के ट्रेकिंग शूज पहन रखे थे जो बर्फ में बढ़िया पकड़ बनाये हुये थे, अब तक के मार्ग में यश और केशव अनगिनत बार गिरे थे किंतु मैं एक बार भी नही गिरा।
ढाबे से ही उन्होंने बूट्स किराये पर लिये और हमने ढाबे वाले चाचा जी के पास ही अपने बैग्स रखवा दिये और बम भोले, हर हर महादेव का उद्घोष करते हुये द्वार पर माथा टेक दिया और पहला कदम आगे बढ़ा दिया, द्वार की चंद सीढ़ियों से ऊपर चढ़ने में जो गफलत हुई उसने साबित कर दिया कि आगे का रास्ता बिल्कुल भी आसान नही होने वाला है। केशव और यश ने रेनकोट पहन रखे थे और मैं अपनी जैकेट पर ही था। घण्टी से लटके युवक की लाठी सीढ़ियों पर ही गिरी थी जो मैंने कब्जा ली थी।
हम कुछ ही मीटर चले होंगे कि पैर घुटनो तक बर्फ में धंसने लगे, चारो ओर सफेद चमचमाती बर्फ ही बर्फ दिखाई दे रही थी, ट्रेक के आरम्भ में लगभग एक किलोमीटर तक जंगल पड़ता है, जंगल का सारा भाग बर्फ से ढंका हुआ था। मैं ऐसा नजारा पहले भी देख चुका था लेकिन केशव और यश ने इतनी बर्फ पहली बार ही देखी थी, वो दोनो अत्यधिक रोमांचित थे और उत्साह से चीख रहे थे चिल्ला रहे थे। आसपास के पेड़ों पर से बर्फ गिर रही थी जो स्नोफॉल का वहम पैदा करती थी। हम घुटने धँसाते धँसाते आगे बढ़ने लगे। यश भाई आरम्भ में ही हिम्मत हारने लगे, वो अनेक बार अपना संतुलन खो कर बर्फ में गिरते पड़ते रहे।
हमने किसी प्रकार एक किलोमीटर पार किया, मैं भी समझ रहा था कि हम बेकार की जिद में है, क्योकि इस भयंकर बर्फ में तुंगनाथ तक पहुंचना लगभग असंभव सा था, वैसे भी 2 बज रहे थे, दो घण्टे में ही अंधेरा होना शुरू हो जाएगा, यदि हम सुबह प्रयास करते तो ऊपर पहुंचने के बारे में सोच भी सकते थे किंतु इस समय यह सम्भव ही नही था। यदि किसी प्रकार गिरते पड़ते मंदिर तक पहुंच भी जाते तो रात हो जाती और नीचे आना असम्भव हो जाता। ऊपर से बर्फ में भीगने के कारण और तापमान में भयँकर गिरावट के चलते हम ठंड से अकड़ जाते। 
तो मैंने निर्णय लिया कि हम उस स्थान तक जाएंगे जहां से चौखम्बा, केदारनाथ और सतोपंथ पर्वत श्रृंखलाएं दिखाई देती है, मैंने दोनो को समझाया कि वहां पहुंचकर आप जो दृश्य देखोगे वह आजीवन याद रहेगा, अविस्मरणीय अवर्णनीय और अकल्पनीय सुंदरता होगी, उस दिव्य अनुभव के लिये चलते है। वे मान गए, मैं और केशव द्रुत गति से चलते रहे लेकिन यश भाई अपने जूतों के कारण धीमे पड़ गए और गिरते पड़ते रहे। सम्पूर्ण मार्ग में केवल हम तीन ही दिखाई दे रहे थे। 
आखिरकार हम उस स्थान पर पहुंचे जहां घने जंगल वाला हिस्सा समाप्त होता है और चौखम्बा, केदारनाथ,सतोपंथ इत्यादि पर्वत श्रृंखलाएं दिखाई देती है। यश और केशव एकम अवाक से थे, मैंने यह दृश्य पहले भी देखा था किंतु फिर भी प्रतीत हो रहा था मानो पहली बार ही देख रहा हूँ।हम तीनों थक कर चूर हो चुके थे और वही बर्फ में कुछ देर बैठ गए, मैंने उनसे कहा कि कुछ दूर और चलते है, अभी भी आगे कुछ पैरों के निशान है तो हम आखरी निशान से कम से कम बीस कदम आगे जाकर ही वापस आएंगे। वो मान गए। थोड़ी ही दूर जाकर पैरों के निशान गायब हो गए, हम शायद पहले थे जो उन पैरों के निशानों से भी काफी आगे आ चुके थे। दूर दूर तक बस सफेद बर्फ से ढंके पहाड़ और जंगल ही नजर आ रहा था, केशव और यश फोटोग्राफी में व्यस्त हो गए और मैं इस दिव्य वातवरण को निहारने लगा। उसी समय मुझे कोई आवाज सुनाई दी, मैंने अपने बाई ओर की ढलान पर देखा, आवाज वहीं से आई थी, फिर मुझे लगा शायद भरम हुआ हो। ऐसी जगहों पर अक्सर वहम हो जाया करते है, लेकिन वह आवाज फिर सुनाई दी। और इस बार यश और केशव दोनो को सुनाई दी।
"भईया यह कैसी आवाज थी?" यश ने घबराकर प्रश्न किया।
"यह भालू की आवाज है, फौरन निकलो यहां से।" मुझे पहचानने में पक्का भूल नही हुई थी।

शेष है....


















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