मंगलवार, 16 अप्रैल 2019

गर्मी में लोनावला खंडाला रोड ट्रिप



फेसबुक की आभासी दुनिया से अनेक मित्र मिले हैं, जिनमे से मिथिलेश 
और शुभानन्द जी भी एक है, तीनो को एक सूत्र में पिरोया उनके लेखन के शौक ने, 
शुभानन्द जी मंझे हुए थ्रिलर लेखक है जिनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है,
 मिथिलेश जी से पुराने ग्रुप्स से पहचान थी, उनकी भी लगभग तीन पुस्तकें प्रकाशीत हो चुकी है,
 मेरे खाते में भी एक पुस्तक है जो मेरी लिखी हुई है
 और दूसरी प्रकाशित होने वाली है  
मै नीली टी शर्ट में, शुभानन्द जी मध्य में और मिथिलेश जी काली टी शर्ट में 
यहाँ इस भूमिका को बाँधने का एक ही उद्देश है और वह यह कि हम तीनो का जो तालमेल है उसे समझने में सहजता होगी
एक ही महीने पहले तय हुई योजनानुसार हैद्राबाद के रहने वाले मिथिलेश जी का मुम्बई आगमन हुआ, शुभानन्द जी नवी मुंबई के आसपास रहते है जो की मेरे यहाँ से कुछ पैतीस किमी के फासले पर पड़ता है मिथिलेश जी बस से आ रहे थे और लगातार सम्पर्क में बने हुए थे, तीनो का वाशी में मिलना तय हुआ जो की नवी मुंबई का एक शहर है शुभानन्द जी और मिथिलेश अपने गंतव्य पर पहुंच गए, किन्तु मैं उनसे मुश्किल से 500 मीटर की दूरी पर होकर भी भटकता रहा, काफी जद्दोजहद और भटकने के बाद मैं वहां पहुंचा
यह वाकई अजीब था जब मेहमान गंतव्य पर पहुंच गया और मेजबान ही रास्ता भटक गया, इस बार गूगल मैप ने धोखा दे दिया, जिसके चक्कर में आकर मै फंस गया और भटकते रहा
तीनों गर्मजोशी से एकदूसरे से मिले, और मजे की बात यह कि उस समय तक हमने तय नही किया था
कि आखिर जाना कहां है? तीनो का केवल मिलना तय हुआ था ताकि हम अपने आने वाले प्रोजेक्ट्स पर कुछ चर्चा कर सके, कोई विशेष योजना नही बनी थी, वैसे भी गर्मी के दिन होने के कारण मुम्बई के आसपास घुमने के लिए जितनी भी जगहें पता थी वे सभी गर्म रहती है, हिल स्टेशन के नाम पर माथेरान वगैरह है किन्तु एक बार चोपता-तुंगनाथ जाकर आने के पश्चात यह सब गर्म स्थल ही प्रतीत होते है वैसे भी माथेरान वगैरह अब पहले की तरह ठंडे नही है, तापमान में कुछ ज्यादा फर्क नही मिलता वहा  
जब कुछ समझ में न आया तो हम बिना कुछ सोचे समझे लोनावला की ओर निकल लिये,
शुभानन्द जी की कार होने के कारण घुमने फिरने की पूरी सहूलियत थी
मिथिलेश जी को खंडाला जाने की इच्छा थी
वो बस फिल्मों में नाम सुनकर उत्साहित थे,
हमने उन्हें समझाया लोनावला खंडाला में ज्यादा फर्क नही है, 
सब मात्र पैदल कदमों की दूरी है, मार्ग में हमने एक स्थान पर 
रुक कर कुछ हल्का फुल्का नाश्ता किया और फिर से अपने गंतव्य की
 ओर बढ़ गए,हम मुश्किल से 3 घण्टे के भीतर ही लोनावला पहुंचे और
 ज्यादा दौड़भाग किये बिना ही एक बढ़िया सा कॉटेज भी बुक कर लिया । 
दिन भर हम कड़ी धूप में घूमते रहे, प्रोजेक्ट्स के सिलसिले में काफी चर्चा और वर्कशॉप हुई
 खाने के लिए ऑर्डर करने का विचार हमने मेनू देखकर ही छोड़ दिया, 
खाना हद से ज्यादा महंगा था,
और यदि आपको घुमक्कड़ी का शौक है तो आपको फिजूल खर्ची से बचना चाहिए, वही हमने भी किया और खाने की तलाश में बाहर निकल गए, दो चार रेस्टोरंट में हमने मेनू और रेट्स चेक किये, हर जगह खाना हद से ज्यादा महंगा था, आख़िरकार कुछ दुरी पर हमे एक नया खुला हुआ ढाबा मिला, जहां मेनू वगैरह तो नही था किन्तु घर जैसा भोजन मिलेगा लिखा हुआ था, शुभानन्द जी और मिथिलेश भाई का पेट गडबड था तो घर का खाना ही उनके लिए सही था, हमने ज्यादा कुछ सोचे बगैर खाना मंगवा लिया, और वाकई में साधारण से दिखने वाले उस ढाबे का खाना रेस्टोरंट के खाने के मुकाबले कही ज्यादा स्वादिष्ट था  जब हम बिल भरने गए तब पता चला जितने दाम में बाकी रेस्टोरंट में हमे एक आदमी का खाना मिल रहा था उतने में यहाँ तीनो का हो गया था,
 हमने रात्री का मेनू पूछा और तय किया की दोबारा यही आयेंगे  
उसके बाद हमने एक वैक्स म्यूजियम में भेंट दी, जहां काफी सेलब्रिटीज
 के वैक्स की प्रतिकृतियाँ बनी हुई थी, हमने वहां काफी मस्ती की, 
वैसे हमे लोनावला में इफरात में वैक्स म्यूजियम्स देखकर काफी हैरत हुई,
 मिथिलेश जी तो चारो ओर केवल चिक्की ही चिक्की के बैनर देख कर चकराए हुए थे  

फिर हमने चलते फिरते कुछ अगली योजनाओं का खाका बनाया फिर बाहर चाय पीने की योजना बनी और चाय के चक्कर मे दस किलोमीटर तक चले गए, जहा गए थे वहां का दृश्य बेहद सुंदर था, वह खंडाला का प्रसिद्ध व्यू पॉइंट था जो बरसात में काफी सुंदर और झरनों से भरा हुआ दिखाई देता है, किन्तु इस समय वहां केवल ऊँचे पर्वत और सूखे हुए जंगल ही दिखाई दे रहे थे
हम अंधेरा होने के बाद तक वही बैठे रहे
, ढेर सारी गपशप की और शाम को फेसबुक पर लाइव आये, हालांकि देर हो गई थी । और संयोग यह हुआ कि अगले दिन मिथिलेश का जन्मदिन भी था । अगले दिन हमने 12 बजे कॉटेज छोड़ दिया और यू ही जहां गाड़ी निकले वही निकल लिये, गाडी चलती रही मैंने अपने मोबाइल से पिंक फ्लॉयड का हाई होप्स बजाया तब पता चला शुभानन्द जी भी पिंक फ्लॉयड के बड़े फैन है, फिर क्या था नए नए गाने और कभी ण खत्म होता पहाड़ी घुमावदार रास्ता, बढ़िया समा बंध गया, 
पिंक फ्लॉयड से शुरू हुआ सफर हिंदी, पंजाबी गानों से होते हुए अंत में भोजपुरी 
गानों पर आकर समाप्त हुआ हमने इस विषय में चर्चा भी की कि किस प्रकार कुछ ही घंटे में लोगो की पसंद कहा से कहा पहुँच जाती है  

लगभग दो घण्टे पश्चात हम एक बड़े से सुंदर तालाब के समीप पहुंच गए जहां नीरव शांति थी, यह पौना लेक था  पहाड़ो के ऊपर से हम नीचे तालाब की ओर पैदल ही मार्च कर लिये और वहां पहुंचकर काफी मस्ती की । चिलचिलाती धुप में हम पहाड़ी से निचे उतरते हुए तालाब की ओर बढने लगे, मार्ग में करौन्धो की झाड़ियाँ मिली तो हमने दांत खट्टे होने तक करौंधे खाए, तालअब काफी विशाल और स्वच्छ था, 
वहा काफी ठंडक थी, हमने पानी के छपाके अपने चेहरे पर मारे और काफी देर 
तक तालाब के किनारे बैठे रहें, हमने वहाँ की काफी तस्वीरें ली और यादगार के तौर पर कुछ वीडियोज भी बनाये
अब चलने का समय था, शाम तक वापस वाशी पहुंचना था क्योकि मिथिलेश 
की साढ़े आठ बजे की बस थी हैद्राबाद की । 
तो हम वहां से निकले, रास्ते मे एक ढाबे पर मिथ के जन्मदिन के उपलक्ष्य में शानदार और स्वादिष्ट खाने का लुत्फ उठाया, वहां हमने काफी मजेदार क्षण बिताए,
क्या शुभानन्द जी क्या मैं क्या मिथिलेश, तीनों मिमिक्री करते रहे
शक्ल से गंभीर नजर आने वाले शुभानन्द जी भी हमारी तरह मस्तीखोर ही निकले

ढेर सारी वीडियोज और तस्वीरें खींची गई
। फिर हम कुछ ही घन्टों में पुनः वहां पहुंच चुके थे जहां से मिथिलेश और शुभानन्द जी ने मुझे पिक अप किया था। वहां एक छोटे से केक शॉप में जाकर पेस्ट्री के रूप में ही हमने जन्मदिवस मनाने की खानापूर्ति भी कर ली । आखिरकार बस भी आ गई और मिथिलेश को फिर मिलने के वादे के साथ विदा कर दिया गया, शुभानन्द जी के साथ मैं स्टेशन वापस आया और फिर मिलने के वादे के साथ हमने विदा ली कुल मिला कर अचानक बनी हुई योजना और 
सफर प्लानिंग करके गए हुए सफर से अधिक रोमांचक साबित हुई यह कहूँ तो कोई 
अतिश्योक्ति नही होगी, मैंने कॉटेज में उन्हें चोपता में बिठाये हुए दिनों की तस्वीरें और विडियोज उन्हें दिखाए तो वे मंत्रमुग्ध से रह गए, और अगली योजना नवम्बर में चोपता-तुंगनाथ-चन्द्रशिला की तय हुई,
 मैंने उनसे वादा भी किया कि चोपता-तुंगनाथ की यात्रा आप सबके जीवन की सबसे 
अविस्मर्णीय यात्रा होगी 
 और हाँ इस यात्रा के विडियोज को मैंने एक यादगार के रूप में एडिट करके यूट्यूब पर भी
 डाल दिया जो आप इस लिंक के पर जाकर देख सकते हैं
नवम्बर में मिलने के वादे के साथ हमने एकदूसरे को विदा किया


गुरुवार, 11 अप्रैल 2019

दिल्ली क्राइम : वेबसीरिज

वेबसिरिज के रूप में नेटफ्लिक्स ने 'दिल्ली क्राइम' नाम से एक उम्दा सीरीज बनाई है। यह पहली सीरीज है जिसे इतनी जल्दी समाप्त किया। निर्भया केस पर होने के कारण मैं इसे देखने से कतरा रहा था, मैं उस घटना का सजीव चित्रांकन देखने का साहस नही जुटा पा रहा था, किन्तु जब पता चला सीरीज उस घटना के पश्चात अपराधियों के पकड़ने की जद्दोजहद और इन्वेस्टिगेशन पर आधारित है, तब देखना आरम्भ किया और एकदम से बंध सा गया, उस घटना की भयावहता को अतिरंजकता से बचते हुए भी पर्याप्त गम्भीरता से दर्शाया गया है जो वाकई रोंगटे खड़े कर देता है। पुलिस की जांच और छोटे से छोटे सुराग के सहारे रात दिन दौड़ भाग करके अपराधियो तक पहुंचने की प्रक्रिया इतनी जबरदस्त है कि बिना किसी ड्रामे के भी आप दम साधे देखते रह जाते है। यह निस्संदेह ही इस साल की अब तक कि बेस्ट वेब सीरीज है यह कहना कोई अतिशयोक्ति नही होगी। फिल्मांकन और प्रस्तुतिकरण इतना चुस्त और रोमांचक है कि कब 7 एपिसोड्स समाप्त हो जाते है पता ही नही चलता, विक्टिम की पीड़ा, उससे जुड़े लोगों की बेबसी, पुलिस टीम की जांच, दिन रात अपने हालातों और परिस्थितियों से समझौता करते हुए असली अपराधियो तक पहुंचने के लिये बेचैनी से आप खुद ब खुद जुड़ जाते है, सीरीज के अंत तक आप खुद ब खुद पुलिस के प्रति अपनी नकारात्मक सोच में थोड़ा तो बदलाव अवश्य महसूस करते है । यह मत समझिये कि यह कोई डॉक्यूमेंट्री या नीरस ड्रामा है, नही कतई नही, यह एक तेज रफ्तार सीरीज है जिसके पहले एपिसोड से ही आप इसके अंत के लिये बेचैन हो उठते है।
बाकी इसका सशक्त पहलू इसके कलाकार भी है, हर छोटे से बड़े करेक्टर ने अपने चरित्र को इतनी सजीवता से जीया है कि लगता ही नही वे एक्टिंग कर रहे है, बिना किसी बनावटी या ओवर ड्रामेटिक दृश्यों के बगैर भी हर करेक्टर अपनी स्वतंत्र छाप छोड़ता नजर आता है।
वैसे वेबसिरिज ट्रेंड में आने से एक बात तो अच्छी हुई है और वह यह कि न जाने कितने ही भुला दिए गए और कमतर आंके गए कलाकारों को उनकी क्षमता दिखाने का एक सही प्लेटफॉर्म और अवसर प्राप्त हुआ है।
मैं रेटिंग वगैरह नही दे सकता, बस इतना कहूंगा मौका मिले तो देख लीजिये, निराश नही होंगे।
अंत मे मन मे कहीं एक प्रश्न अवश्य रह गया, इस भयानक कांड में सम्मिलित सारे अपराधी बेहद गरीब तबके और छोटे क्षेत्रों से संबंधित थे, इसके बावजूद उन्हें पकड़ने और चार्जशीट दायर करने में सारे पुलिस महकमे के दांतों तले पसीना आ गया, यदि इनके बजाय अपराधी रसूख और पैसेवाले होते तब क्या हालत होती ? इसके प्रमोशन में एक टैगलाइन प्रयुक्त की जाती है, केस जिसने सारे देश को बदल कर रख दिया।
लेकिन क्या वाकई कुछ बदला नजर आता है?

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