शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

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तुंगनाथ चोपता यात्रा - 2


पिछली पोस्ट में मैंने ऋषिकेश से
श्री महादेव तुंगनाथ का मंदिर 
चोपता पहुंचने और मार्ग के रोमांचक अनुभवों के विषय मे

 सविस्तार से बताया था।
जिसे आप यहाँ क्लिक करके पढ़ सकते है 
मौसम और माइनस 5 डिग्री ठंड के कारण हमने रात्रि ट्रैकिंग खारिज करके सुबह तुंगनाथ ट्रैक करने की योजना बनाई।
तुंगनाथ मन्दिर के शीर्ष से दिखाई देती वृहद पर्वत श्रृंखला 
 हम कुछ घण्टो पश्चात तुंगनाथ के मुख्य द्वार पर थे, अब यहां से लगभग 3 किमी की ट्रैकिंग थी। हमने मुख्य द्वार पर बैठे अफसरों द्वारा पर्ची कटवाई और अपने पास मौजूद वस्तुओं का ब्यौरा दिया, वैसे हमारे पास बस दो पानी की बोतलें और एक छोटा डिब्बा ड्राई फ्रूट्स का ही था। मैं और मेरी साली जी ने महादेव का जयघोष करते हुए ट्रैक पथ पर कदम रखा।
तुंगनाथ ट्रैकिंग के लिये उस समय अधिक भीड़ नही थी, बमुश्किल दो तीन लोगों का दल ही जाते दिखाई दिया। ट्रैकिंग आरंभ करते ही पथरीले मार्ग पर जमी सख्त बर्फ से सामना हुआ। भुरभुरी बर्फ की तुलना में सख्त बर्फ पर फिसलने का खतरा अधिक होता है, और उस पर चोट लगने का जोखिम भी सबसे अधिक होता है। मैं अनेकों बार अपने स्पोर्ट्स शूज में फिसलते फिसलते बचा, साली जी के ट्रैक शूज के कारण उन्हें पकड़ बनाने में सहायता मिल रही थी, वे बिना लड़खड़ाए चलती रही। थोड़ी दूर चलने के बाद ही आलम यह था के हमारे चारों ओर केवल बर्फ की सफेद चादर ही दिखाई दे रही थी। एक ओर जंगल तो दूसरी ओर बर्फ से ढंकी पर्वतशृंखलाये। एक क्षण तो ऐसा आया के अब तक सुंदर दिखाई देने वाली चीजें ही उकताहट पैदा करने लगी, ऐसा होने के पीछे प्रमुख कारण थकान थी। अब हवा भी भारी होती प्रतीत हो रही थी, सांसे धौंकनी की तरह चलने लगी थी, यहां तक के कुछ फ़ीट के अंतर की दूरी पर चलने वाली साली जी की सांसे तक स्पष्ट सुनाई देने लगी, वे हांफ रही थी। ऐसे ही गिरते पड़ते डेढ़ दो घण्टे बीत गए, फिर हमने लंबे लंबे मोड़ लेते ट्रैकिंग पथ को देखा और निर्णय लिया के हम शार्ट कट लेते है, जो मुड़ कर जाने के बजाय सीधी चढ़ाई थी। हमारे पीछे एक दल आ रहा था जिसमे दो सरदार भी थे। एक दुबला पतला सरदार काफी जोशीला लग रहा था, वह बर्फ से ढंके एक टीले पर चढ़ कर अपनी लाठी घुमा कर डांस भी करने लगा। हमने एक नजर उसकी तरफ देखा, मैंने साली जी से कहा भी की इसका यह जोश बस यही तक है। उतरते वक्त देखते है कितना शेष रहता है, उन्हें वैष्णो देवी यात्रा की अब तक याद थी। वैष्णो देवी जाते समय वे फुर्ती से दौड़ी चली गई थी बिना थकान के। लेकिन आते समय उनकी हालत खराब हो गई थी, आधा पहाड़ मेरे कंधों के सहारे ही उतरी थी। हमने शार्ट कट लिया जहा कड़ी बर्फ के बजाय भुरभुरी बर्फ थी। एक एक फ़ीट तक बर्फ में पैर धँसाते हुए हम आगे बढ़े। मेरे स्पोर्ट शूज में बर्फ जाती स्पष्ट महसूस हुई। मेरे हैंड ग्लव्स जो ऊनि थे वे भी बर्फ से गीले हो रहे थे। हमने यहां एकाध बार स्नो बॉल बना कर एक दूसरे को मारा भी। लेकिन थकान अधिक होने और ठंड के कारण यह खेल भी छोड़ना पड़ा। मैं कई बार बर्फ में पैर धंसने के कारण गिरा लेकिन चोट वगैरह नही आई। सीधी चढ़ाई वाला फिसलन नही था लेकिन अधिक थकाऊ अवश्य था। कई बार साली जी ने ही मुझे सहारा दिया। मैं डील डौल में पहलवानों जैसा हु, वजन में भी 95 किलो का हु। वे दुबली पतली सी वजन में मुझसे आधी ही होंगी, तो मेरी सहायता करना खुद उनके थकान का कारण बनता जा रहा था। जहां तक हो सके मैं उनकी सहायता नजरअंदाज करने का प्रयास करता रहा । इसी प्रकार हमने दो लंबे शार्ट कट्स लिए, जो सीधी चढ़ाई थी। यहां मैंने एक सबक सीखा की यदि आपके पास ट्रैकिंग शूज नही है तो आप शार्ट कट ना ले, सीधी चढ़ाई वाले तो कतई नही। धीरे धीरे मेरी काली जीन्स सफेद बर्फ के निशानों से रंग चुकी थी। साली जी भी कई मर्तबा फिसली और गिरी भी। हम दोनों एक दूसरे को गिरते पड़ते उठाते रहे और चलते रहे। दो शार्ट कट के बाद अब तीसरा शार्ट कट लेने की हिम्मत नही बची थी। हम बीच बीच मे पानी पीते रहे, मैंने उन्हें एक बार मे अधिक पानी पीने के बजाय घूंट घूंट करके थोड़ी थोड़ी देर बाद पानी पीने की सलाह दी जिससे थकान और प्यास जल्दी नही लगती। मार्ग में मुझे यह देखकर कई जगहों पर ट्रैकर्स द्वारा छोड़ा गया कचरे का ढेर देखकर बड़ी ही घृणा हुई के हम इंसान इतनी सुंदर जगहों पर भी अपनी नीचता से बाज नही आते। अनेक जगहों पर तो बियर की खाली कैन्स और बोतलें तक दिखाई दे रही थी। चॉकलेट्स, पानी की खाली बोतलें और स्नैक्स के खाली पैकेट्स तो इफरात में थे। पता नही वो किस मानसिकता के लोग होंगे जिन्हें ऐसी सुंदर जगह पर गंद फैलाते उनकी आत्मा नही धिक्कारती। तुंगनाथ जैसे पंचकेदार पर शराब पीने में भी जिन्हें हिचक नही होती। हमारा मन वितृष्णा से भर गया । मैं रास्ते भर ऐसे लोगो को कोसता चला आ रहा था। खैर ऊपर से हमे नीचे आते कुछ यात्री दिखे जिनकी हालत खस्ता थी, कुछ मोड़ पर करने के पश्चात ही एक जानी पहचानी चोटी देखकर मैं उछल पड़ा। वो चंद्रशिला शिखर था, मैंने साली जी को तुंगनाथ और चंद्रशिला के काफी वीडियोज दिखाए थे आने के पहले, तो वे भी पहचान गई। तुंगनाथ मंदिर परिसर स्पष्ट दिखाई देने लगा था, एक नई शक्ति और ऊर्जा का संचार हुआ। लेकिन थकान फिर भी जस की तस ही थी, हमने एक जगह बैठ कर चारो ओर देखा, यह एकदम स्वर्ग के दृश्य जैसा था, बर्फ की सफेद चोटियां और चारो ओर विशालकाय पहाड़ ही पहाड़, मानो हम दुनिया के सबसे शीर्ष पर आ बैठे हो। केदार और चौखम्बा पर्वत श्रृंखलाओं पर हवा से सफेद बादलों की तरह उड़ता हुआ कुछ दिखाई दे रहा था, हमने ऐसा दृश्य पहले कभी नही देखा था। हम काफी देर तक निहारते रहे और कुछ तस्वीरें भी निकाल ली। फिर हमने थोड़े ड्राई फ्रूट्स खाये और पानी के घूंट लेने के पश्चात आगे बढ़े। एक बोतल खाली हो चुकी थी जिसे मैंने क्रश करके अपनी जैकेट की जेब मे ही ठूंस दिया, वहां फेंकने का प्रश्न ही नही उठता था। अब हम तुंगनाथ की सीढ़ियों पर पहुंच चुके थे, साली जी ने लगभग मेरा हाथ खींचते हुए मुझे सीढ़ियों पर चढ़ाया। मुख्य द्वार पर पहुंच कर मैंने माथा टेका और घण्टी बजाई, अब मैं मंदिर के प्रांगण में था। वहां दूसरे दलों के लोग भी थे, जो फिलहाल सेल्फी और वीडियोज में व्यस्त थे। मुझे इन चीजो का होश नही था। मैं मंदिर के समक्ष जा खड़ा हुआ , कपाट बंद थे जो मुझे पहले से ही ज्ञात था। एक अद्भुत अनुभूति सी हो रही थी वहां, मैं अपने आप मंदिर के समक्ष बैठ गया। साली जी ने भी उस समय मुझे नही टोका। वे मंदिर को चारों ओर से निहार रही थी। मैं बर्फ के ढेर पर काफी देर आंखे बंद किये बैठा रहा। लगभग बीस मिनट शांत बैठे रहने के पश्चात मैंने मंदिर के सामने से दिखाई देने वाले दृश्यों की ओर नजर दौड़ाई। वाकई स्वर्ग को यदि परिभाषित किया जाए तो यह वही दृश्य था, मैं भावुक हो गया था, साली जी मेरे पास आई। वे जानती है के मैं थोड़ा भावुक व्यक्ति हु। मैंने उनको धन्यवाद दिया के उन्होंने एक साल से मेरा तुंगनाथ आने का सपना पूर्ण करने में अपना सहयोग दिया और मेरे साथ यहां तक आई। उन्होंने धन्यवाद के लिए मुझे डांट दिया, की आप ऐसा ना बोला करो। मुझे भी यहां आने का मन था। कुछ देर हम यू ही मंदिर को देखते निहारते रहे। दोपहर के ढाई बजे रहे थे, थकान और मौसम को देखते हुए चंद्रशिला जाना उचित नही था। मेरा मन था लेकिन हमें शाम को ही ऋषिकेश भी निकलना था और चंद्रशिला जाने के बाद यह सम्भव न रहता, दूसरे वे भी थकी हुई थी तो वो असमर्थ थी। तीसरे अभी हमे सबसे कठिन कार्य करना था और वो था उतरना। वैसे भी चंद्रशिला पर जाने का मतलब था वापसी में अंधेरा होना जो के उन रास्तो पर कतई घातक होता। तो हमने महादेव के दर्शन करके ही इति कर ली। चंद्रशिला जाने की योजना निरस्त करने वाले केवल हम ही नही थे, मंदिर परिसर में जितने भी दल थे लगभग सभी चंद्रशिला योजना निरस्त कर चुके थे। मार्ग में बर्फ सूख कर कड़ी होने के कारण फिसलन भी थी जिस वजह से चंद्रशिला का मार्ग थोड़ा अधिक खतरनाक था। तो हमने महादेव के समक्ष माथा टेक कर और यादगार के लिये कुछ फोटोज खींचकर विदा ली और तुंगनाथ से नीचे की ओर यात्रा आरम्भ कर दी, असली कठिनाई तो अब आरम्भ होने वाली थी।


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