काफी अरसे बाद किसी फिल्म के विषय मे चर्चा कर रहा हु, इस रविवार को ही रजनीकांत और
अक्षय की बहुप्रतीक्षित फ़िल्म '2.O' देखी, बाहुबली के पश्चात यदि किसी फिल्म की सबसे
अधिक प्रतिक्षा थी तो यह 2.O ही थी।
मैंने रिलीज के पश्चात ही ढेरों समीक्षाएं पढ़ी, देखी, समझी।
जो मिलीजुली थी। कई समीक्षाओं में मैने विशेष तौर पर हॉलीवुड से तुलना देखी,
समीक्षक और दर्शक निराश थे के इतने बजट के बाद भी हॉलीवुड से उन्नीस ही रही।
तो सबसे पहले मैं यह बात साफ कर दु, के मैं भारतीय फिल्म को भारतीय मानकों और गुणवत्ता के
आधार पर ही तुलना करना उचित मानता हूं।
आपको हॉलीवुड तक जाने की कतई आवश्यकता नही है, यदि तुलना करनी ही है तो बॉलीवुड से कीजिये,
तब पता चलेगा के साउथ सिनेमा अब बॉलीवुड से कही आगे जा चुका है, और कंटेंट ओरियंटेड हो रहा है।
जी मसाला फिल्में भी थोक में आती है किंतु उसी हिसाब से नए और प्रयोगात्मक कॉन्सेप्ट्स भी
निरन्तर आ रहे है, बाहुबली के बाद से ही दक्षिण सिनेमा के प्रति नजरिया बदल चुका है,
और बॉलीवुड की घटिया लव स्टोरीज, फेक फेमिनिज्म, यूथ फलाना ओरिएंटेड फिल्मो की सड़ांध
से त्रस्त दर्शकों को एक नया पर्याय मिला है।
शंकर हमेशा से एक प्रयोगवादी सिनेमाकार माने गए है, हिंदुस्तानी,नायक, अपरिचित,आई, रोबोट,
और 2.O तक उन्होंने हमेशा एक अनूठा कॉन्सेप्ट ही चुना है और हर बार दर्शकों का प्यार पाया है।
साउथ की प्रयोगवादिता वाकई अचंभित करती है ,मगधीरा, मक्खी, 24, रोबोट, 2.O, गाजी अटैक,
जैसी अनगिनत फिल्में है जो कुछ अलग देखने का अहसास देती है।
कल्पनाशीलता देखिये मक्खी के बदला लेने जैसे विषय की हजम ना होमेवाली कहानी को भी
जिस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है के दर्शक शुरू से अंत तक बंध जाता है।
बात करे 2.O की तो मैं पहले ही रिव्यूज वगैरह के चक्कर मे पढ़कर कोई सोच बनाकर नही जाता।
मुझे शंकर पर यकीन है, इसलिए मैं कही भी निराश नही हुआ, शुरुवाती दृश्यों में जब चिट्टी की
एंट्री होती है, वीएफएक्स भले बनावटी और नकली से लगते है, लेकिन जल्द ही इसमे सुधार
स्पष्ट देखा और महसूस किया जा सकता है, यही वह बदलाव था जिस कारण फ़िल्म के
वीएफएक्स पर दोबारा काम किया गया और फ़िल्म रिलीज में एक साल की देरी हो गई।
फ़िल्म की गति इतनी तीव्र है के बिना किसी गाने, फालतू मसाले, लव एंगल,
और लटके झटकों के बिना भी ढाई घण्टे की फ़िल्म भागती सी महसूस होती है।
कह सकते है के फ़िल्म का अस्सी प्रतिशत भाग केवल एक्शन सीक्वेंस ही है,
लेकिन हर सीक्वेंस इस कदर भव्यता से और शानदार कल्पनाशीलता से भरा है के सीट से एक क्षण
भी उठने का मन नही करता के पता नही कौन सा दृश्य छूट जाए।
अभिनय में रजनीकांत हमेशा लाउड रहे है, और वही है भी। रोबो के रूप में उनका आर्टिफिशियल
मेकअप झलकता है लेकिन इतना चलता है, आप एक वृद्ध, व्यक्ति को मेकअप से रिक्रिएट कर रहे
है तो इतनी कमियां नज़रन्दाज कर ही देना चाहिए, अक्षय कुमार फ़िल्म का मजबूत पक्ष अवश्य रहे है,
फ्लैशबैक में पक्षीराजन के रूप में उनकी छटपटाहट और विवशता भावुक कर देती है।
(हैरत होती है के कुछ प्रबुद्ध दर्शक गणों को यह बनावटी और इमोशन लेस प्रतीत हुआ।)
फ़िल्म का नायक असल में पक्षीराजन ही लगता है। लेकिन जो सहानुभूति उससे उसके
फ्लैशबैक के बाद होती है वही सहानुभूति क्लाइमैक्स में रजनीकांत के औरा तले दबा दी गई सी प्रतीत होती है।
कुछ बुद्धिजीवी और प्रबुद्ध दर्शकों का कहना है फ़िल्म इलॉजिकल है, तो उनसे यही निवेदन करना चाहूंगा के आप
फिक्शन ,और फंतासी देख रहे हो तो आप इलॉजिकल -लॉजिकल जैसे तर्को में ना ही पड़े। साई-फाई,
फिक्शन-फंतासी इत्यादि में लॉजिक का कोई लेना देना नही होता।
लॉजिक वगैरह सब कहानी के हिसाब से ही मोड़ा जाता है, रचा जाता है। यदि इतनी बात नही समझ मे आती
तो फिक्शन-फंतासी आपका जेनर है ही नही।
आप गामा रेडिएशन से एक मनुष्य के हरे दानव में परिवर्तित होने पर मजे लेते है,
शरीर मे कंकाल की जगह धातु बदल कर हाथ से धातुई पंजे निकालने वाले वूल्वरिन से अटैच हो जाते है,
रेडियोएक्टिव मकड़ी के काटने पर मनुष्य का स्पाइडर मैन बनना लॉजिकल लगता है,
सुपरहीरोज का अस्तित्व लॉजिकल और तर्कपूर्ण लगता है, गैलेक्सिज में युद्ध करना,ग्रहों को ब्रम्हांड
को तबाह करना आपको तर्कपूर्ण लगता है
और आप एन्जॉय करते है, लेकिन बात जैसे ही भारतीय फिल्मों की आती है आपके अंदर का
लॉजिक मैन जाग जाता है। यह बदलना चाहिए, यदि कुछ अच्छे प्रयोग हो रहे है तो उसकी सराहना
होनी चाहिए, 2.O माना के कई लोगो का हाजमा खराब करती है, लेकिन इतनी भी बुरी नही है के
उसे नकार दिया जाए, किसी ने कहा था हॉलीवुड में स्टार वार्स के आने के बाद जो बदलाव हुये थे,
भारत मे बाहुबली के आने के बाद वही बदलाव आरम्भ हो गए है।
बाहुबली ने एक ऐसा मानक स्थापित कर दिया जिसे तोड़ना एकदम से नाको चने चबाने के समान हो गया है,
बॉलीवुड तो कतई यह नही कर सकता, ठग्स ऑफ हिंदुस्तान जैसे वाहियात उदाहरण सामने ही है,
यदि कोई यह रिकॉर्ड तोड़ सकता है तो निस्संदेह वह साउथ ही होगा।
यहां तो भयंकर प्रकृतिक आपदा पर भी फिल्में बनाएंगे तो उसमें भी अपनी घटिया आइडियोलॉजी
और लव स्टोरी घुसा देंगे, केदारनाथ की भयंकर आपदा पर भी भी बॉलीवुड उसमे जब केवल लव
स्टोरी ही खोज पाता है, तब असली जरूरत है लॉजिक से परखने की के आखिर कहां समस्या है?
ये आखिर कब तक दर्शकों को बेवकूफ बनाते रहेंगे ? प्रयोग के नाम पर एक वृद्ध हो चले स्टार को
बौना बना देते है लेकिन हरकते वही छिछोरी करवाते है, ये प्रयोग है बॉलीवुड के ?
भगवान का शुक्र है के अब बॉलीवुड भी साउथ के
बढ़ते प्रभाव से घबराया हुआ है और उसे अपना लेवल पता चल रहा है, निस्संदेह 'साहो, और केजीएफ' जैसी
आगामी फिल्में बॉलीवुड के सड़े गले कॉन्सेप्टस के ताबूत में एक और कील साबित होने वाली है।
बॉलीवुड में यदि प्रयोगात्मक कॉन्सेप्ट है तो वो केवल छोटे बजट और आयुष्मान खुराना, राजकुमार राव,
जैसे अभिनेताओं की फिल्मों में ही नजर आते है।
बाकी बॉलीवुड के कर्णधार तो अब बस केवल झूठा स्टारडम बचाने की जुगत में ही नजर आ रहे है,
वो बदलना नही चाहते।
खैर इतना ही कहूंगा के यदि 2.O देखने जा रहे है तो कृपया हॉलीवुड स्टैंडर्ड्स दिमाग मे लेकर ना जाये,
बॉलीवुड स्टैंडर्ड्स के हिसाब से देखेंगे तो फ़िल्म आपको बॉलीवुड के लेवल से आगे की चीज ही लगेगी।
फालतू की समीक्षाओं के चक्कर मे पड़कर सोच ना बनाये, यदि आप एक फिक्शन-फंतासी-साई-फाई
देखना चाहते है तो आपका मनोरंजन अवश्य होगा और पसन्द भी आएगी।
ऐसी फिल्मों का सफल होना ही बॉलीवुड और हर विषय मे प्यार मोहब्बत जैसी सड़ांध के मुंह पर एक तमाचा है।
इस तमाचे में दर्शकों का सहयोग आवश्यक है, यदि फिल्मिंग में नए कॉन्सेप्ट्स आ रहे है,
बदलाव हो रहे है, स्टैंडर्ड्स बढ़ रहे है तो उसे प्रोत्साहन जरुरी है।
बाकी 2.O थ्रीडी में ही देखिये, और खो जाइये, (रोमांस,गाना, मसाला वाले दर्शक अपना रुख 7
तारीख को केदारनाथ जैसी प्रोपेगण्डा बेस्ड फिल्मो की ओर कर सकते है ,
उनके लिये 2.O भारी निराशा ही होगी।)
रही बात लॉजिक और तार्किकता की या साइंस की तो भाई मैट्रिक्स जैसी फिल्मों में भी
आपको इन सबका जनाजा निकलता स्पष्ट देखने को मिल जाएगा यदि खोजो तो।
बहुत दिनों पश्चात फ़िल्म के विषय मे कुछ लिखा है तो जोश जोश में ज्यादा हो गया इसके लिये क्षमा प्रार्थी😋
अक्षय की बहुप्रतीक्षित फ़िल्म '2.O' देखी, बाहुबली के पश्चात यदि किसी फिल्म की सबसे
अधिक प्रतिक्षा थी तो यह 2.O ही थी।
मैंने रिलीज के पश्चात ही ढेरों समीक्षाएं पढ़ी, देखी, समझी।
जो मिलीजुली थी। कई समीक्षाओं में मैने विशेष तौर पर हॉलीवुड से तुलना देखी,
समीक्षक और दर्शक निराश थे के इतने बजट के बाद भी हॉलीवुड से उन्नीस ही रही।
तो सबसे पहले मैं यह बात साफ कर दु, के मैं भारतीय फिल्म को भारतीय मानकों और गुणवत्ता के
आधार पर ही तुलना करना उचित मानता हूं।
आपको हॉलीवुड तक जाने की कतई आवश्यकता नही है, यदि तुलना करनी ही है तो बॉलीवुड से कीजिये,
तब पता चलेगा के साउथ सिनेमा अब बॉलीवुड से कही आगे जा चुका है, और कंटेंट ओरियंटेड हो रहा है।
जी मसाला फिल्में भी थोक में आती है किंतु उसी हिसाब से नए और प्रयोगात्मक कॉन्सेप्ट्स भी
निरन्तर आ रहे है, बाहुबली के बाद से ही दक्षिण सिनेमा के प्रति नजरिया बदल चुका है,
और बॉलीवुड की घटिया लव स्टोरीज, फेक फेमिनिज्म, यूथ फलाना ओरिएंटेड फिल्मो की सड़ांध
से त्रस्त दर्शकों को एक नया पर्याय मिला है।
शंकर हमेशा से एक प्रयोगवादी सिनेमाकार माने गए है, हिंदुस्तानी,नायक, अपरिचित,आई, रोबोट,
और 2.O तक उन्होंने हमेशा एक अनूठा कॉन्सेप्ट ही चुना है और हर बार दर्शकों का प्यार पाया है।
साउथ की प्रयोगवादिता वाकई अचंभित करती है ,मगधीरा, मक्खी, 24, रोबोट, 2.O, गाजी अटैक,
जैसी अनगिनत फिल्में है जो कुछ अलग देखने का अहसास देती है।
कल्पनाशीलता देखिये मक्खी के बदला लेने जैसे विषय की हजम ना होमेवाली कहानी को भी
जिस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है के दर्शक शुरू से अंत तक बंध जाता है।
बात करे 2.O की तो मैं पहले ही रिव्यूज वगैरह के चक्कर मे पढ़कर कोई सोच बनाकर नही जाता।
मुझे शंकर पर यकीन है, इसलिए मैं कही भी निराश नही हुआ, शुरुवाती दृश्यों में जब चिट्टी की
एंट्री होती है, वीएफएक्स भले बनावटी और नकली से लगते है, लेकिन जल्द ही इसमे सुधार
स्पष्ट देखा और महसूस किया जा सकता है, यही वह बदलाव था जिस कारण फ़िल्म के
वीएफएक्स पर दोबारा काम किया गया और फ़िल्म रिलीज में एक साल की देरी हो गई।
फ़िल्म की गति इतनी तीव्र है के बिना किसी गाने, फालतू मसाले, लव एंगल,
और लटके झटकों के बिना भी ढाई घण्टे की फ़िल्म भागती सी महसूस होती है।
कह सकते है के फ़िल्म का अस्सी प्रतिशत भाग केवल एक्शन सीक्वेंस ही है,
लेकिन हर सीक्वेंस इस कदर भव्यता से और शानदार कल्पनाशीलता से भरा है के सीट से एक क्षण
भी उठने का मन नही करता के पता नही कौन सा दृश्य छूट जाए।
अभिनय में रजनीकांत हमेशा लाउड रहे है, और वही है भी। रोबो के रूप में उनका आर्टिफिशियल
मेकअप झलकता है लेकिन इतना चलता है, आप एक वृद्ध, व्यक्ति को मेकअप से रिक्रिएट कर रहे
है तो इतनी कमियां नज़रन्दाज कर ही देना चाहिए, अक्षय कुमार फ़िल्म का मजबूत पक्ष अवश्य रहे है,
फ्लैशबैक में पक्षीराजन के रूप में उनकी छटपटाहट और विवशता भावुक कर देती है।
(हैरत होती है के कुछ प्रबुद्ध दर्शक गणों को यह बनावटी और इमोशन लेस प्रतीत हुआ।)
फ़िल्म का नायक असल में पक्षीराजन ही लगता है। लेकिन जो सहानुभूति उससे उसके
फ्लैशबैक के बाद होती है वही सहानुभूति क्लाइमैक्स में रजनीकांत के औरा तले दबा दी गई सी प्रतीत होती है।
कुछ बुद्धिजीवी और प्रबुद्ध दर्शकों का कहना है फ़िल्म इलॉजिकल है, तो उनसे यही निवेदन करना चाहूंगा के आप
फिक्शन ,और फंतासी देख रहे हो तो आप इलॉजिकल -लॉजिकल जैसे तर्को में ना ही पड़े। साई-फाई,
फिक्शन-फंतासी इत्यादि में लॉजिक का कोई लेना देना नही होता।
लॉजिक वगैरह सब कहानी के हिसाब से ही मोड़ा जाता है, रचा जाता है। यदि इतनी बात नही समझ मे आती
तो फिक्शन-फंतासी आपका जेनर है ही नही।
आप गामा रेडिएशन से एक मनुष्य के हरे दानव में परिवर्तित होने पर मजे लेते है,
शरीर मे कंकाल की जगह धातु बदल कर हाथ से धातुई पंजे निकालने वाले वूल्वरिन से अटैच हो जाते है,
रेडियोएक्टिव मकड़ी के काटने पर मनुष्य का स्पाइडर मैन बनना लॉजिकल लगता है,
सुपरहीरोज का अस्तित्व लॉजिकल और तर्कपूर्ण लगता है, गैलेक्सिज में युद्ध करना,ग्रहों को ब्रम्हांड
को तबाह करना आपको तर्कपूर्ण लगता है
और आप एन्जॉय करते है, लेकिन बात जैसे ही भारतीय फिल्मों की आती है आपके अंदर का
लॉजिक मैन जाग जाता है। यह बदलना चाहिए, यदि कुछ अच्छे प्रयोग हो रहे है तो उसकी सराहना
होनी चाहिए, 2.O माना के कई लोगो का हाजमा खराब करती है, लेकिन इतनी भी बुरी नही है के
उसे नकार दिया जाए, किसी ने कहा था हॉलीवुड में स्टार वार्स के आने के बाद जो बदलाव हुये थे,
भारत मे बाहुबली के आने के बाद वही बदलाव आरम्भ हो गए है।
बाहुबली ने एक ऐसा मानक स्थापित कर दिया जिसे तोड़ना एकदम से नाको चने चबाने के समान हो गया है,
बॉलीवुड तो कतई यह नही कर सकता, ठग्स ऑफ हिंदुस्तान जैसे वाहियात उदाहरण सामने ही है,
यदि कोई यह रिकॉर्ड तोड़ सकता है तो निस्संदेह वह साउथ ही होगा।
यहां तो भयंकर प्रकृतिक आपदा पर भी फिल्में बनाएंगे तो उसमें भी अपनी घटिया आइडियोलॉजी
और लव स्टोरी घुसा देंगे, केदारनाथ की भयंकर आपदा पर भी भी बॉलीवुड उसमे जब केवल लव
स्टोरी ही खोज पाता है, तब असली जरूरत है लॉजिक से परखने की के आखिर कहां समस्या है?
ये आखिर कब तक दर्शकों को बेवकूफ बनाते रहेंगे ? प्रयोग के नाम पर एक वृद्ध हो चले स्टार को
बौना बना देते है लेकिन हरकते वही छिछोरी करवाते है, ये प्रयोग है बॉलीवुड के ?
भगवान का शुक्र है के अब बॉलीवुड भी साउथ के
बढ़ते प्रभाव से घबराया हुआ है और उसे अपना लेवल पता चल रहा है, निस्संदेह 'साहो, और केजीएफ' जैसी
आगामी फिल्में बॉलीवुड के सड़े गले कॉन्सेप्टस के ताबूत में एक और कील साबित होने वाली है।
बॉलीवुड में यदि प्रयोगात्मक कॉन्सेप्ट है तो वो केवल छोटे बजट और आयुष्मान खुराना, राजकुमार राव,
जैसे अभिनेताओं की फिल्मों में ही नजर आते है।
बाकी बॉलीवुड के कर्णधार तो अब बस केवल झूठा स्टारडम बचाने की जुगत में ही नजर आ रहे है,
वो बदलना नही चाहते।
खैर इतना ही कहूंगा के यदि 2.O देखने जा रहे है तो कृपया हॉलीवुड स्टैंडर्ड्स दिमाग मे लेकर ना जाये,
बॉलीवुड स्टैंडर्ड्स के हिसाब से देखेंगे तो फ़िल्म आपको बॉलीवुड के लेवल से आगे की चीज ही लगेगी।
फालतू की समीक्षाओं के चक्कर मे पड़कर सोच ना बनाये, यदि आप एक फिक्शन-फंतासी-साई-फाई
देखना चाहते है तो आपका मनोरंजन अवश्य होगा और पसन्द भी आएगी।
ऐसी फिल्मों का सफल होना ही बॉलीवुड और हर विषय मे प्यार मोहब्बत जैसी सड़ांध के मुंह पर एक तमाचा है।
इस तमाचे में दर्शकों का सहयोग आवश्यक है, यदि फिल्मिंग में नए कॉन्सेप्ट्स आ रहे है,
बदलाव हो रहे है, स्टैंडर्ड्स बढ़ रहे है तो उसे प्रोत्साहन जरुरी है।
बाकी 2.O थ्रीडी में ही देखिये, और खो जाइये, (रोमांस,गाना, मसाला वाले दर्शक अपना रुख 7
तारीख को केदारनाथ जैसी प्रोपेगण्डा बेस्ड फिल्मो की ओर कर सकते है ,
उनके लिये 2.O भारी निराशा ही होगी।)
रही बात लॉजिक और तार्किकता की या साइंस की तो भाई मैट्रिक्स जैसी फिल्मों में भी
आपको इन सबका जनाजा निकलता स्पष्ट देखने को मिल जाएगा यदि खोजो तो।
बहुत दिनों पश्चात फ़िल्म के विषय मे कुछ लिखा है तो जोश जोश में ज्यादा हो गया इसके लिये क्षमा प्रार्थी😋
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