शनिवार, 29 दिसंबर 2018

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तुंगनाथ चोपता यात्रा-3


इस यात्रा वृतांत के पिछले भाग पढने के लिए तुंगनाथ-चोपता यात्रा भाग 1 और तुंगनाथ चोपता यात्रा भाग-2 पर क्लिक करें
 गिरते पड़ते आखिरकार तुंगनाथ महादेव के मंदिर तक पहुंच ही गया, शाम होने को थी और ऋषि
केश भी वापस पहुंचना था,ऊपर से भारी थकान और बर्फ से ढंकी चोटियों के कारण तुंगनाथ से आगे डेढ़ किलोमीटर चंद्रशिला जाना लगभग असंभव ही था। इस यात्रा और ट्रैक में मेरी सबसे ज्यादा मददगार बनी मेरी साली जी, यदि वे ना होती तो मैं पहुंचता जरूर किन्तु वापसी बेहद दुष्कर हो जाती। 
तुंगनाथ के कपाट इस समय बंद रहते है, जो मैं पहले से जानता था, किन्तु बंद कपाट श्रद्धा के समक्ष कोई मायने नही रखते, मेरा मानना है कपाट बंद होने से महादेव का आभास हट नही जाता। महादेव तो सदैव आसपास ही है। यहां आने का एक कारण बर्फ भी थी, मुझे,श्रीमती जी, और साली जी को बर्फ की सफेद चादरें देखने की तीव्र इच्छा थी। हमने कभी अपने समक्ष इस वातवारण को महसूस नही किया था, यही कारण था के हमने दिसम्बर की योजना बनाई जब बर्फ वृष्टि अपने उफान पर होती है। और कहना ना होगा के हम अपने उद्देश्य में कामयाब भी रहें। अब तो इतनी बर्फ देख चुके थे के मन सूखी जमीन देखने के लिये बेचैन सा हो उठा। 
मंदिर प्रांगण से निकलते समय मुझे ज्ञात हुआ के मेरी लाठी कही गुम हो गई है, वहां बैठे कुछ लड़कों में से एक ने अपनी लाठी मुझे देनी चाही जिसे मैंने नम्रता से अस्वीकार कर दिया। साली जी ने कहा की ले लीजिए आगे बहुत काम आएगी, आपके जूते साथ नही दे रहे, उनके आग्रह के कारण और उस लड़के के पुनः अनुरोध पर मैंने वह लाठी ले ली। यहां एक बात बताना जरूरी समझता हूं, यदि आपके पास ट्रैकिंग स्टिक्स का जुगाड़ नही है तो लाठियां अवश्य लें, आपको आते हुए भले कोई खास सहायता ना मिले लेकिन लाठी का महत्व आपको जाते हुए अवश्य समझ मे आएगा। निस्संदेह ट्रैकिंग के मध्य रास्ते मे पहुंचकर मैं यह निश्चित तौर पर कह सकता हु के जिस लड़के ने मुझे अपनी लाठी दी थी, वह अपने उस निर्णय पर बेहद पछताया होगा। खैर अब बारी थी वापसी की, और तुंगनाथ की सीढ़ियों से उतरते ही मैं धम्म से गिरा। साली जी हंसी, मैं भी हंसते हुए उठा और उनके साथ हो लिया, उनके ट्रैकिंग शूज बर्फ में पकड़ बनाये चल रहे थे और मैंने ट्रैकिंग पथ के बजाय उसके किनारों पर जमी भुरभुरी बर्फ में चलना उचित समझा। पथ पर बर्फ कड़ी हो जाती है जिससे भयंकर फिसलन होती है, लेकिन किनारों पर भुरभुरी बर्फ होने से पैर धँसते है जिससे गिरने का खतरा कम हो जाता है, लेकिन यहां आपको ध्यान देना होता है क्योंकि इससे आपको आगे किसी खन्दक,गड्ढे या नाली के होने का भी आभास नही होता, जिससे आप खुद को चोट पहुंचा सकते है। ऐसे में लाठी काम आती है, जिसे आगे धंसा कर बर्फ ना केवल बर्फ की गहराई जांची जा सकती है, बल्कि
विपरीत बल देकर अनावश्यक फिसलन से भी खुद को बचाया जा सकता है।
 

थोड़ा आगे जाकर साली जी भी फिसल कर गिरी, और अब हंसने की बारी मेरी थी, हमने हंसी मजाक में प्रतियोगिता शुरू कर दी के नीचे उतरने तक देखते है कौन कितनी बार गिरता है। जो सबसे कम गिरेगा वह विजेता कहलायेगा, उन्होंने मान लिया। और गिनती आरंभ हो गई।
कभी वे गिरती कभी मैं, 15 बार गिरने के बाद मैं गिनती गिनना ही भूल गया, प्रतियोगिता की बात ही छोड़ो। फिर कितनी बार गिरे इसकी गिनती ही नही रही। एक जगह कठोर बर्फ थी, मैंने वहां लगी रेलिंग पर मजबूत पकड़ बनाई और आगे बढ़ने को हुआ ही था के पैर फिसल गए, लेकिन रेलिंग नही छूटी, परिणाम स्वरूप मेरे भार से कलाई ही मूड गई। अत्यधिक दर्द शुरू हो गया, साली जी भी चिंतित दिखाई देने लगी तो कह दिया सब सामान्य है। किसी प्रकार गिरते पड़ते हमने आधा मार्ग पार किया, एक जगह हमे हमारा शार्ट कट दिखा जो आते समय हमने पकड़ा था, साली साहिबा ने शार्ट कट पकड़ने की इच्छा जताई। मैंने एक नजर ट्रैकिंग पाथ को देखा जो लगभग तीन मोड़ लिए हुए काफी लंबा रास्ता था, और फिसलन भी। 
मैं बुरी तरह पस्त था, अनेक बार गिर चुका था, कलाई मुड़ी हुई थी तो मैं और अधिक फिसलने का जोखिम नही उठा सकता था। मैंने उनके शार्ट कट वाले सुझाव पर हामी भर दी और उनके पीछे चल दिया। 
वह रास्ता सीधा उतार था, और डेढ़ फीट से भी ज्यादा बर्फ वहां बिछी पड़ी थी। और यह रास्ता चुनकर हमने गलती कर दी।
जमी हुई बर्फ पर आपको अंदाजा रहता है की रास्ते मे पैर नही धँसेगे लेकिन इस बर्फ में आपको मार्ग के उतार चढ़ाव का कोई अंदाजा नही रहता, आपके कदम रखते ही भुरभुरी बर्फ अंदर तक धंस जाती है और आप फिसल जाते है। मैं यहां भी कई बार गिरा, साली जी के ट्रैकिंग शूज भी यहां बेकार साबित हो रहे थे। फिर भी वे मेरे लिये सही मार्ग बनाते आगे बढ़ रही थी और मुझे उनके ही पदचिन्हों पर आने का आग्रह कर रही थी।
लेकिन एक जगह मेरा पैर फिसला और मैं लुढ़कते हुए उनसे आ टकराया और उन्हें भी कई फीट तक लिए चला गया। 
अब समझ मे नही आ रहा था की हम इस स्थिति पर हंसे या रोये, साली जी तो हताश होकर बैठी ही रह गई। हम शार्टकट के चक्कर मे ऐसे मोड़ पर आ खड़े हो गए थे जहां से ना आगे बढ़ पा रहे थे और ना पीछे जा सकते थे। 
ट्रैकिंग पाथ दिखाई दे रहा था लेकिन वहां तक पहुंचने के लिए हमे इस मोटी बर्फ की
चादर को पार करना था, बर्फ में पैर धंसा कर चलने से अधिक ऊर्जा खर्च होती है और थकान जल्दी आती है ऊपर से हम हर दो-तीन मिनट में एक बार गिरते जरूर थे, साली जी फिर भी कम गिरती थी लेकिन मेरे स्पोर्ट्स शूज के कारण मैं इतनी बार गिरा के मानो सम्पूर्ण ऊर्जा ही नष्ट हो गई थी। एक एक कदम भारी हो रहा था।

हम बिना बोले कुछ देर तक उसी बर्फ में धंसे हुए बैठे रहे, और अपनी हांफती साँसों को नियंत्रित करते रहे। यहां साली जी को ध्यान आया के मेरी मुड़ी कलाई के कारण मुझे ट्रैकिंग में हद से ज्यादा असुविधा हो रही है । तो जहां मुझे उनका सहारा बनना चाहिए था वहां वे मेरा सहारा बन गई। 
उनके चेहरे पर थकान और हताशा के भाव स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। वे उठी और कहा की बस थोड़ी देर और फिर हम मुख्य पथ पर होंगे। उन्होंने हाथ पकड़ कर मुझे किसी प्रकार उस बर्फ की दलदल से निकाला और अथक प्रयास और अनेकों बार गिरने के पश्चात हम आखिरकार मुख्य ट्रैकिंग पाथ पर थे, हम आधा रास्ता पार कर चुके थे, शार्ट कट जितना जाते समय उपयोगी था उससे कई गुना ज्यादा आते समय खतरनाक और जोखिमभरा हो जाता है।
इसलिए अब हमने दूसरा शार्ट कट लेने की योजना एकदम खारिज कर दी और सीधे पाथ पर चल पड़े। अचानक से मैं पुनः एक बार फिसला,लेकिन इस बार भुरभरी बर्फ के बजाय ठोस धरातल पर गिरा, अपने आप को बचाने के चक्कर मे मैंने हाथ सीध में जमीन पर रखा,लेकिन सम्पूर्ण शरीर का भार उसपर आ जाने के कारण मेरी वह कलाई भी मुड़ गई।
इस प्रकार मैंने अपनी दोनो कलाइयों का सत्यानाश करवा लिया और रास्ता अभी भी आधा बाकी था, मेरे कपड़े अंदर तक बर्फ से भीग चुके थे, जूते, मोजे,दस्ताने पूर्णतया गीले हो चुके थे,जीन्स भी लगभग गीली थी जिस कारण ठंड अब ज्यादा महसूस होने लगी थी। अब किसी भी हाल में कैम्प तक पहुंचना ही था। साली जी को जब मेरी दूसरी कलाई के विषय मे पता चला और मेरे भीगे कपड़ो को देखा तो बस किसी तरह उनकी रुलाई उन्होंने रोक ली। 
वे जानती थी की इस समय ऐसी किसी हरकत से दूसरे का मनोबल टूट जाता है। वे नीचे पहुंच चुकी थी मेरे लिए खड़ी थी, वे रास्ते का निर्देश दे रहीं थी की यहाँ से आइए,वहां कदम रखिये। मैं किसी प्रकार टूटी फूटी कलाइयों,भीगे कपड़ो और थकान भरे शरीर को धकेलते हुए उन तक पहुंचा तो उन्होंने हिम्मत बढाने के लिए मेरे कंधे और पीठ थपथपाई।
'बस और थोड़ा रह गया है, चलो मैं हु आपके साथ, बस थोड़ा और हिम्मत दिखाइये।' उनके शब्दो मे उनकी थकान और विवशता स्पष्ट झलक रही थी।

मुझे समझ ना आ रहा था, जहां मुझे उनकी हिम्मत बनना था वहां वे मेरी हिम्मत बढ़ा रही थी। एक बारगी तो दोनो साथ फिसलकर बैठे ही रह गए, तब उन्होंने खुद को ट्रैक पर फिसलाना शुरू कर दिया, मैंने भी यही किया, जूतों के जोर पर बैठ कर दोनो हाथों से सतह को धकेल कर मैं भी कई मीटर तक फिसलते रहा उनके पीछे पीछे।
इस प्रकार हमने इतनी तकलीफ के बावजूद भी फिसलन का ना केवल आनन्द उठाया बल्कि रास्ता भी आसान किया, लेकिन ये ज्यादा देर नही चल सकता था,क्योकि आप ऐसे फिसलते हुए रास्तों के तीखे कटाव पार नही कर सकते। इससे आप किसी पत्थर से टकरा सकते है, कठोर बर्फ पर पलट सकते है, या सीधे पथ से नीचे गिर सकते है जिससे आप गंभीर रूप से घायल भी हो सकते है। किसी प्रकार हम अब ठीक ठाक मार्ग पर आ चुके थे, वहां एक वृद्ध की दुकान थी जो आते समय दिखी थी। जिसे देखकर हमारे अंदर उत्साह का संचार हुआ, क्योकि अब हम आधे से अधिक रास्ता पार कर चुके थे। हमने वहां खुद को आराम दिया और गरमागरम चाय और मैगी खाई।
जिससे काफी राहत मिली। आगे का मार्ग हमने एकदूसरे को थामे हुए ही पार किया। मार्ग में वे सरदार जी भी पस्त से पड़े हुये दिखाई दिए जो शुरू में लाठी घुमा कर डांस करते नजर आए थे। अब बर्फीला ट्रैक खत्म हो रहा था, कठोर सतह दिखाई देने लगी थी, जंगलों के मध्य मोनाल पक्षी दिखाई देने लगे तो मैंने साली जी को दिखाया, वे उनकी सुंदरता पर मुग्ध होकर मानो थकान ही भूल गई। मैंने उन्हें बताया के यह उत्तराखंड का प्रमुख पक्षी है। और वहां एक नही बल्कि चार पांच मोनाल दिखे।
उन्हें देखने के बाद अब तुंगनाथ का द्वार दिखाई देने लगा जहां से हमने चढ़ाई आरम्भ की थी। लेकिन एक डर यह भी था की सड़क पर बर्फ जमी होने के कारण हमें फिर से तीन किलोमीटर बर्फ में चलकर ना जाना पड़े। 
अब इतनी शक्ति ना उनमे बची थी और ना मुझमे। तो वही एक लोकल दुकानदार से गाड़ी की बात की, 300 रुपये से बात शुरू होकर आखिर वे 200 में माने, हमारा कैम्प वहां से बामुश्किल तीन साढ़े तीन किलोमीटर ही था लेकिन अब चलने की शक्ति शेष नही थी। हम गाड़ी में बैठे, दोनो ने तुंगनाथ महादेव के द्वार की ओर अंतिम बार देखा और अपने कैम्प की ओर बढ़ गए। 
कैम्प पहुंचने के पश्चात मैंने श्रीमती जी को कैम्प के बाहर हमारी प्रतीक्षा करते हुए पाया, शाम के साढ़े 5 बज रहे थे और अंधेरा होना आरम्भ हो गया था, तापमान में हद से ज्यादा गिरावट यानी शुरू हो गई थी। साली जी ने अपनी बहन को देखा और दौड़कर उनके पास जाकर गले लग गई। वे एकदम से रोने लगी। मैं भी उनके मध्य शामिल हो गया। मैं रोया नही बस काफी देर तक तीनो एकदूसरे से आलिंगनबद्ध रहे। यह काफी भावुक क्षण था। थोड़ी देर पश्चात वे सामान्य हुई तो हमने फटाफट पैकिंग वगैरह की, कपड़े बदले और कैम्प वाले मेजबान को खाने के लिए कह दिया, वे आज रात्रि रुकने का आग्रह करते रहे लेकिन हमें ऋषिकेश हर हाल में पहुंचना ही था तो हम ने सविनय उनके आग्रह को ठुकरा दिया और खाना वगैरह खाकर चेक आउट किया, ठंड इतनी अधिक बढ़ चुकी थी के एक कदम रखना तक दूभर हो रहा था, ड्राइवर ने भी कह दिया के आगे चेकपोस्ट पर गाड़ी रोक देंगे। देवप्रयाग से आगे नही जा पाएंगे, आठ बजे के बाद ट्रेवलिंग वाली गाड़ियां प्रतिबंधित रहती है। हमने कह दिया जहां रोकेंगे वही रात के लिये होटल कर लेंगे लेकिन फिलहाल यहां से निकलिये।



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