मंगलवार, 3 जून 2014

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फिल्म एक नजर में : नदिया के पार ( १९८२ )




फिल्म एक नजर में : नदिया के पार ( १९८२ )

 ‘’केशव प्रसाद मिश्र ‘’ के उपन्यास ‘कोहबर की शर्त ‘ पर आधारित फिल्म ‘नदिया के पार ‘ जो १९८२ में रिलीज हुयी और काफी सराही गयी और सफलता के कीर्तिमान भी रचे ! फिल्म सभी तरह के लोगो को पसंद आई और सभी के ...दिल को छुवा ,इसी कहानी को आधार बनाकर बाद में ‘राजश्री प्रोडक्शंन ‘ ने ‘हम आपके है कौन ‘ जैसी भव्य फिल्म बनायी जो भारतीय सिनेमाई इतिहास में करिश्मा ही है !
किन्तु इसके बावजूद मुझे ‘हम आपके है कौन ‘ इतनी पसंद नहीं आई जितनी के ‘नदिया के पार ‘ ( बिना शक के हम आपके है कौन एक बढ़िया फिल्म है और हमेशा रहेगी ) लेकिन मुझे नदिया के पार की सरलता अधिक प्रिय है भव्यता के बजाय ! गाँव देहात की खुश्बू ,संस्कृति ,शादी बियाह ,रस्मो रिवाजो से जितनी यह फिल्म जोडती प्रतीत होती है उतनी वह नहीं ,खैर यहाँ तुलना करना मेरा मकसद नहीं है इसलिए इस विषय को यही समाप्त करते हुए आगे बढ़ते है और बात करते है फिल्म की उन खूबियों को जिसने इसे एक मिल का पत्थर और क्लासिक का दर्जा दे दिया .
इसके चरित्र ,इसकी घटनाए ,इसका परिवेश ,इसका अभिनय ,मानो सब कुछ सजीव सा हो ,कही भी कोई अभिनेता नजर नहीं आता फिल्म देखते वक्त नजर आते है तो सिर्फ नैतिक रूप से सदृढ़ प्रेमी एवं प्रेमिका ,अपने भाई को निस्वार्थ प्रेम करनेवाला बड़ा भाई ! अपने परिवार को ममता से सींचने वाली माँ सामान ‘भाभी ‘ थोड़े से नटखट ,शरारती किन्तु दिल के स्वच्छ काका जी .
फिल्म की खुबिया गिनाने के लिए हमारे पास शब्दों की कमी हम साफ़ महसूस कर रहे है ! कहानी भी बिना किसी लाग लपेट या जटिल जबरदस्ती की भावनाए दिखाए बगैर एक सीधी सी दिल को छू लेती और एक आदर्श निर्माण करती सी है .
फिल्म की कहानी तो लगभग सभी जानते है ,
ओमकार और चन्दन दो भाई है जो अपने काका के साथ एक गाँव में सीधा साधा जीवन जीते है ! मेहनत ही जिनका एकमात्र ध्येय एवं आपसी प्रेम ही जिनकी एकमात्र पूंजी है ,ओमकार जहा सीधा साधा है है वही छोटा भाई चंदन ( सचिन ) शरारती एवं चंचल है ! किन्तु दिल का साफ़ है ,
एक दिन काका की तबियत खराब होने पर दोनों भाई चौबेपुर के वैद्य जी के पास जाते है जो नदी के उस पार है !
गाँव में कदम रखते ही चन्दन और ओमकार का सामना होता है वैद्य जी की छोटी बेटी गूंजा से , जिसकी शरारतो का शिकार होकर दोनों भाई वैद्य जी के पास पहुँचते है , वैद्य जी को ओमकार का व्यवहार भा जाता है और वे अपनी बड़ी बेटी के रिश्ते की बात ओमकार के काका से चलाते है ! जो आगे चलकर विवाह में बदल जाता है ,परिवार में एक बहु के आ जाने के बाद परिवार का सूनापन खत्म हो जाता है और चन्दन को भाभी के रूप में एक ममतामयी छाँव मिल जाती है और ओमकार को पत्नी के रूप में संगिनी !
दोनों परिवारों में रिश्ता जुड़ने से चन्दन का अक्सर नदी पार आना जाना होने लगता है और इन मुलाकातों से चंदन और गूंजा एकदूसरे के करीब हो जाते है और एकदूसरे से प्रेम करने लगते है .
समय पश्चात इनका प्रेम और प्रगाढ़ होते जाता है और चन्दन एक भतीजे का चाचा भी बन जाता है ! अब परिवार में नए सदस्य के आने से सभी खुश है लेकिन अचानक खुशियों को नजर सी लग जाती है ,और मायके में हुयी दुर्घटना में भाभी की अकस्मात मृत्यु हो जाती है .
भाभी की मृत्यु के पश्चात चंदन अपने भाई की चिंता में टूट सा गया है ,और वहा बच्चे के भविष्य हेतु दोनों परिवारों की रजामंदी से ओमकार के साथ ‘गूंजा ‘ का विवाह तय हो जाता है ! चंदन अपने भाई की खुशियों खातिर कुछ नहीं कहता एवं मौन रहकर इस निर्णय को स्वीकार कर लेता है ,सच्चाई पता चलने पर गूंजा भी चन्दन का निर्णय मान लेती है ,
किन्तु विवाह के समय दोनों के प्रेम के विषय में ओमकार को पता चल जाता है और वह अपने भाई से गूंजा की शादी करवा देता है ,और कहानी का सुखमय अंत होता है .
स्वर्गीय निर्देशक गोविंद मूनिस जी के बेहतरीन निर्देशन की जितनी प्रशंशा की जाए उतनी ही कम है ,फिल्म में कही भी बनावटीपण नहीं है , फिल्म में यही बात दिल को छूती सी प्रतीत होती ! फिल्म की अधिकांश फिल्मांकन
जौनपुर क्षेत्र के गाँवों में हुवा है तो फिल्म देखते वक्त आपको यदि गाँव की मिटटी की सुगंध आये तो समझ लीजिये आप इस फिल्म का हिसा बन चुके है , महिला किरदारों में आप स्वाभाविक सुन्दरता पायेंगे नाम मात्र के मेकअप में और चटखीले कपड़ो के बजाय साधारण से कपड़ो में, चलने बोलने के ढंग में नखरो के बजाय गाँव की छोरियों सी सुघड़ता कही भी आपको इन किरदारों के अवास्तविक होने का अहसास नहीं होने देती ! चन्दन के किरदार में सचिन कही भी आपको उत्तर भारत से बाहर का व्यक्ति नहीं लगता, दिल जीत लेता है पूरी फिल्म में चाहे अपनी भौजी के प्रति उसका प्रेम हो चाहे बड़े भाई के प्रति सम्मान चाहे गूंजा के प्रति उसका निश्छल प्रेम , संवाद मानो लिखे ना होकर सीधे उतारे गए हो ,
गीत संगीत पक्ष भी उतना ही मजबूत है जितना की फिल्म की कहानी या अभिनय ! इन गीतों के बगैर फिल्म अधूरी सी होती ,हर गीत कर्णप्रिय एवं सदाबहार है ,जिसे बारम्बार सुना जा सकता है ,ओमकार की शादी के दौरान गया गीत ‘जब तक पुरे ना हो फेरे साथ ‘ शादी बियाह को और रस्मो को बहुत बढ़िया तरीके प्रस्तुत करता है, वही चंदन का अपने भाभी के प्रति प्रेम दर्शाता और उसकी भावनाओं का वर्णन करता गीत ‘’ साँची कहे तोहरे आवन से हमरे अंगना में आईल बहार भौजी ‘ हो !
या फिर गूंजा और चन्दन के प्रेम का इजहार करता गीत ‘कौन दिसा में लेके चला रे बटोहिया ‘
बहुत ही प्यारा और आत्ममुग्ध करता सा गीत है ,होली के मौको पर जहा अन्य क्षेत्रीय फ़िल्मकार अपनी फिल्मो में द्विअर्थी एवं अश्लील गीतों को तरजीह देकर बट्टा लगाते है वही इस फिल्म में मस्तीभरा गीत ‘’जोगी जी धीरे धीरे जोगीजी वाह जोगीजी ‘ पूर्ण रूप से गरिमामयी और नटखट है .बिछोह के दौरान आया हुवा गीत ‘गूंजा रे ‘’ ,चन्दन और गूंजा के आपसी भावनाओं को उजागर करता है एकदूसरे के प्रति .
साधना सिंग की सरलता और सचिन का अभिनय तो फिल्म को वास्तविक बनाता ही है किन्तु अन्य कलाकारों का अभिनय भी फिल्म को मजबूत बनाता है , फिल्म में जौनपुर के गाँवों की वास्तविक लोकेशन चाहे वह सफ़ेद मिटटी के घर हो ,नदिया ,कच्ची पगडंडी हो ,साँझ की मद्धिम रौशनी हो ,या रात्री की चांदनी उजियारा आपको 'नास्टेलजिक' बना ही देती है .
ऐसी फिल्मो की समीक्षा करने की कुव्वत मुझमे नहीं है ,

 इसलिए इस फिल्म को मै पांच में दस स्टार देना चाहूँगा .
 
 


 

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