पुस्तक समीक्षा : बनारस टाकिज
इस
पुस्तक का मैंने हाल ही में बड़ा नाम सुना था ,
काफी चर्चा हो रही थी शोशल जगत की
आभासी दुनिया में !हम
तो ठहरे पुस्तक प्रेमी ,तो भला हम इससे कैसे अछूते रहते भला ! वैसे भी आजकल हिंदी
लेखन भी अपनी पुख्ता पहचान बना रही है ,जो कुछ समय पहले तक लुप्तप्राय समझी जाती
थी ,किन्तु नए लेखको ने इसमें जीवन का संचार किया है ! नए लेखक कुछ नया लिखने और
उसकी नयी प्रस्तुती जो के आजके युवा मन को छू जाए और हल्का फुल्का मनोरंजन भी करे के
प्रयास में ज्यादा रहते है ! और अधिकतर उनमे सफल भी रहते है ,वैसे
भी कुछ समय पहले या कहू एक –दो वर्ष पहले ही हिंदी के नाम पर मूल ‘अंग्रेजी ‘ पुस्तक
का हिंदी रूपांतर ही मिलता था ! हिंदी में लिखा गया उपन्यास तो क्वचित या न के
बराबर था , यहाँ पल्प फिक्शन के धुरंधरों की बात नहीं करूँगा जो हमेशा से अपनी शैली और जेनर में अव्वल रहे है और रहेंगे ! या यु कहू के इनके बाद भारतीय पल्प
फिक्शन ,क्राईम राईटिंग अनाथ हो जाएगी तो अतिश्योक्ति नहीं होगी ,खैर बात कर रहा
हु नए लेखको की जिन्होंने अपनी लेखन शैली पाठको को प्रभावित किया है , तो हमने भी
नयी पीढ़ी के लेखको को समझने एवं कुछ नया पढने की गरज से ‘भगत ‘ जी को पढना शुरू
किया और जल्द ही मन उकता गया , पता नहीं क्यों इनमे वो गहराई नहीं मिल पा रही थी
जो होनी चाहिए ! मसालेदार कहानी ,रोमांस ,खुलापन ,कॉलेज युवा ,कैम्पस ,बस उनका हर
उपन्यास इन्ही चीजो के चारो ओर सिमट के रहा गया ,जो शुरू शुरू में अच्छा लगा किन्तु
जल्द ही उकताहट का कारन बनने लगा तो हमने तौबा कर ली !इसी
के साथ कुछ अन्य लेखको के हिंदी प्रयास देखे जिन्होंने बिना किसी शोर शराबे और विग्यापनो
के चुपचाप आकर और अपनी दमदार उपस्थिति प्रस्तुती करके अपनी लेखन शैली और प्रस्तुती
की खूब वाह वाही बटोरी .गत
दिनों इसी कड़ी में तीन पुस्तके खरीदी ,जिनमे क्रमवार है ‘जिंदगी ऐस पैस ,बनारस
टाकिज ,और इश्क में शहर होना !पहली
फुर्सत में ही ‘बनारस टाकिज ‘ निपटा डाली ,अन्य अभी कतार में है और खाली क्षणों की
प्रतीक्षा में भी !तो
‘बनारस टाकिज ‘ कहानी है कुछ दोस्तों की जो ‘भगवानदास होस्टल ‘ में है ! और अपनी वकिली
पढ़ाई निपटा रहे है ! इनमे एक से एक नमूने भरे पड़े है ,कुछ सीनियर कुछ जूनियर, कही रैगिंग
का डर तो कही नए दोस्त जो न चाहते हुए भी दोस्त बन गए ! जिंदगी बेफिक्र सी लापरवाह आवारा हवा के झौंको
की तरह बह रही है ! यहाँ ‘बुद्धिजीवी ‘ कहना आपको ‘गंवार ‘ की श्रेणी में शामिल कर
सकता है तो आप यहाँ ‘बी .डी ,जीवी ‘ शब्द का ही प्रयोग करे ,इस होस्टल में एक है ‘जयवर्धन
जी , जो हर बात में ‘घंटा ‘ शब्द का प्रयोग करते है , फिर मिलना होगा ‘अनुराग डे ‘
से जो जो विदेशी नाम से प्रसिद्ध है , पुरखे बंगलादेशी रहे होंगे ,ये दादा नाम से
जाने जाते है ! फिर है ‘सूरज ‘ जो बाबा भी कहलाते है , रामप्रताप उर्फ़ दुबे जी हर
जुगाड़ में माहिर ,हर मर्ज की दवा इनके पास है ! आगे ज्ञान के सागर ‘पाण्डेय जी ‘
भी मिलेंगे , ‘नवेंदु ‘ भी है जो चलता फिरता विकिपीडिया है ‘फिल्मो ‘ का ,और इनकी
हर बात फ़िल्मी है !और ये सब है अपने ‘बनारस ‘ में , भोलेनाथ जी की नगरी !बनारस
हिन्दू विश्व विद्यालय के होस्टल में !सभी
किरदार जाने पहचाने है ! क्योकि आप इन सबसे मिल चुके होंगे पहले भी ,स्कूल में
,कॉलेज में , और सबसे डरावना और उकताहट
भरे शब्द ‘ फैकल्टी ‘ में ! ( इस शब्द से सबसे ज्यादा चिढ और खीज होने लगी है ‘भगत
‘ जी के कारण )पता
नहीं क्यों आजकल हर पुस्तक में इस शब्द का वर्णन अवश्य होता है , जहा इस शब्द का
जिक्र आया वहा मूड खराब हुवा ही समझो ! किन्तु कहानी का प्रस्तुतिकरण जल्द ही
फैकल्टी भुलाने में सहायक बनता है और हम बनारसी छात्रो में घुल मिल जाते है ! उनकी
रोजमर्रा की समस्याए ,पढाई की चिंता ,सेमेस्टर का तनाव , चाय की गुन्टी और दुनिया
भर की बकलोली ! एकदम देसी मिजाज ! इस उम्र में जो हर युवा की समस्या है वह इनकी भी
है जिन्हें ये कोई समस्या नहीं मानते ,वह है लापरवाही और गैरजिम्मेदारी , जिसे
लिया हल्के में ही जाता है ,तब तक ,जब तक के कोई बड़ा सबक न मिल जाए !तो
ऐसा सबक कैसे मिले ? अब सब यही चेप देंगे
तो पुस्तक में का ‘सम्पादकीय ‘ पढोगे ? ( वो तो है ही नहीं पुस्तक में )हां
जिन्हें सुखा सुखा पसंद नहीं है ,उनके लिए ‘लभ इश्टोरी ‘ भी है ! माने हर किसी के लिए कुछ न कुछ है , किन्तु एक
बात काफी अखरती रही जिसके चलते हम पृष्ठ कुतरते रहे ,हर दो तीन पृष्ठों के पश्चात
! वह थी गालियाँ , दोस्तों में गालियाँ चलती है किन्तु इतना अधिक भी क्या गलियों
का आग्रह ? क्या बनारस की पृष्ठभुमी का उल्लेख आते ही ‘गालियाँ ‘ आवश्यक हो जाती
है ? जो बनारस के नहीं है वे इन्ही पुस्तको
से बनारस को जानते है ! ऐसे में क्या बनारस में ‘गालियाँ ‘ प्यार दर्शाती है
,दर्शाकर भ्रामकता फैलाना सही है ? ( माना लेखक का यह उद्देश नही रहा हो ,) क्या
हम इस तरह से बनारस का एक विपरीत स्वरूप नहीं प्रस्तुत कर रहे ? सब कुछ सही था
किन्तु यही बात कचोटती रही और जहा भी गाली दिखी वहा कुतर दिए ! अब पुस्तको के साथ
ऐसा करना मुझे अच्छा नहीं लगता किन्तु रोक न पाया ,उम्मीद
करता हु के मै लेखक की अन्य किसी विषय पर आधारित उपन्यास भी जल्द ही पढू ! ( जब
प्रकाशित हो ),और उसमे कुछ ऐसा पढू जो अब तक कही और नही पढ़ा , ऐसा न लगे के विषय
वही पढ़ रहा हु बस लेखक ‘भगत ‘ के बजाय कोई और है . मिली जुली प्रतिक्रिया रही
हमारी .
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