राजकुमार हिरानी
अनूठे विषयों के लिए जाने जानेवाले फिल्मकार है ,
और आमिर खान फिल्म इंडस्ट्री में
अपने परफेक्शन के लिए मशहूर है !
तो लाजमी है जब दो धुरंधर मिल जाये तो कुछ उम्दा
निर्माण देखने को मिले .
ऐसा ही कुछ है फिल्म
‘पि .के ‘ के साथ ,
जो बेशक एक बढ़िया फिल्म है अपनी कुछ विसंगतियों के बावजूद !
फिल्मो
में एलियन जैसी किसी चीज की उपस्थिति में उसे जनमानस के
साथ बांधे रखना एक बहुत
बड़ी चुनौती होती है ,जिसे बखूबी निभाया था
राकेश रोशन ने ‘कोई मिल गया ‘ का
निर्माण करके !
किन्तु पि के का एलियन अनूठा है ,वह भोजपुरी बोलता है
( जाने क्यों
‘अवधि ‘ को भोजपुरी बता दिया जाता है ,जबकि नितांत अलग है )
,भगवान की खोज में है !
उसके अपने कुछ मासूम
सवाल है जिन्हें सुनकर कोई सोच में पड़ जाता है ,
तो कोई बिदक जाता है ,
फिल्म की शुरुवात एक
एलियन से होती है जो पृथ्वी पर निर्वस्त्र आता है ,
उसके तन पर सिर्फ एक ही चीज है
और वह है उसका रिमोट जो एक
लोकेट की शक्ल में है ! कीन्तु एक चोर उसका लोकेट छीन
कर भाग जाता है ,
जिसके बाद वह असहाय हो जाता है क्योकि उस रिमोट के
बगैर वह अपने
यान को बुला नहीं सकता !
वह अपने रिमोट के लिए दर दर भटकता है ,तब अपनी खोज के
दौरान वह भोजपुरी ( कथित ? )भाषा को आत्मसात कर लेता है ,
जो उसकी भाषा बन जाती है
संवाद की ! उसकी उल जलूल हरकतों के
कारण उसका नाम ‘पीके ‘ पड़ जाता है !
वह यह देख
कर हैरान हो जाता है के कोई ‘भगवान ‘ है जिसपर यहाँ के लोग
विश्वास रखते है के वह
सब ठीक कर देगा ,भोला भाला पीके भी अपने रिमोट के लिए हर भगवान की खोज में निकल
जाता है ,कभी चर्च में नारियल तो कभी मस्जिद
में वाईन लेकर जाता है ! जिसमे कई बार
वह पिटते पिटते बचता है ,
वह उलझन में है के लोग कहते है भगवान ने सबको बनाया तो सब
भगवान को
अलग अलग तरीको से क्यों मानते है ?
तब उसकी मुलाक़ात
होती है ‘जग्गू ‘ ( अनुष्का शर्मा ) से ,जो एक रिपोर्टर है ,
और पीके से प्रभावित
है ! उसे पता चलता है के पीके एक एलियन है और वह अपने रिमोट की तलाश में है ,तो वह
उसका साथ देती है !
इसी दौरान पता चलता
है के एक ढोंगी बाबा ‘तपस्वी ‘ ( सौरभ शुक्ला ) के पास पीके का रिमोट है जिसे वह ‘भगवान
शिव ‘ के डमरू का अंश बताकर चंदा उगाही कर रहा है ! पीके धर्म के पाखंड की पोल
खोलने का निर्णय लेता है ,फिर क्या होता है ? पीके अपना रिमोट वापस ले पाता है या
नहीं ? धर्म के आडम्बर के खिलाफ क्या उसकी कोशिशे रंग लाती है ? यह फिल्म में
देखना दिलचस्प रहेगा .
फिल्म का विषय अनूठा
है ,पीके का किरदार बेहद मासूम और प्यारा है जिससे दर्शक जुडाव महसूस करता है !
कभी वह हंसने पर विवश कर देता है तो कभी आँखे नम कर देता है ,आमिर ने पीके के
किरदार को पूरी जीवटता से निभाया है !फिल्म की पटकथा अपने निर्देशन के मुताबिक़ ही
कसी हुयी है ,किन्तु फिल्म का मध्यांतर के बाद सिर्फ तपस्वी पर केन्द्रित होकर रह
जाना बहुत अखरता है ,ऐसा लगता है मानो फिल्म अचानक से दुसरे ढर्रे पर चली गयी हो !
और क्लाईमेक्स भी जल्दबाजी में निपटाया गया प्रतीत होता है ,खैर ,बात करे अभिनय की
तो जग्गू के किरदार में अनुष्का अपना प्रभाव छोडती है ! तो छोटे छोटे किरदारों
में ‘सुशांत राजपूत ,भीष्म साहनी ,बोमन
इरानी ,संजय दत्त ,सौरभ शुक्ला ‘भी छाप छोड़ जाते है !
फिल्म बढ़िया है ,ढोंग पाखंड
की पोल खोलती है लेकिन कई जगहों पर
फिल्म पक्षपाती सी हो जाती है ! ढोंगी, पाखंडी,
धर्म को लेकर आम आदमी को
भ्रमित करनेवाले हर धर्म में मौजूद है ,
किन्तु फिल्म को
सिर्फ किसी एक धर्मविशेष के बारे में केन्द्रित करना पक्षपात ही लगता है !
ऐसा
नहीं है के उनका जिक्र नहीं किया गया है ,एक दृश्य है जब ट्रेन की बोगी के विस्फोट
से पीके विचलित हो जाता है ,जिसे आतंकवादियों ने किया है !
जिसके बारे में पीके
कहता है ,’ हर कोई अपने भगवान को बचाना चाहता है ,धर्म को बचाना चाहता है! कोई
ट्रेन को उड़ाकर तो कोई पत्थर को भगवान बनाकर ‘
किन्तु यह सिर्फ
खानापूर्ति मात्र लगती है ! कई समीक्षकों ने कहा है यदि आप फिल्म देखते समय अपनी
आस्था को साथ लेकर जायेंगे तो आपकी आस्था को ठेस अवश्य लगेगी ! तो उनसे प्रश्न यह
है के आस्था को कहा रख के जाए ?
क्या आस्था कोई परे
रखने वाली या साथ न ले जानेवाली चीज है ? और क्यों सिर्फ एक धर्म विशेष ही अपनी
आस्था को परे रखे ? ऐसा आप इसलिए कहते हो क्योकि वह लचीला है और आपको कुछ भी कहने
सुनने का हक़ देता है ,यही बात यदि दुसरे धर्म की होती तो आपको आस्था कही रखने के
बजाय शायद फिल्म को ही कही और रख के आना पड़ता ! ऐसा क्यों लगता है के सुधार की
आवश्यकता मात्र इसी धर्म को है ? आपको नहीं लगता के आधी दुनिया को नरक बना
देनेवाले और अपने धर्म के आलावा किन्ही और धर्म को न बर्दाश्त करनेवाले कट्टर
पंथियों को सुधार की आवश्यकता है ज्यादा है ? किन्तु उस विषय पर गहनता से और ईमानदारी
से कुछ बनाने दिखाने का साहस बोलीवूड में नहीं है ,
बेशक
"पीके" एक बढ़िया फ़िल्म है । किन्तु आमिर भी हिम्मत उतनी ही दिखा
पाये ढोंग पाखंड के खिलाफ जितनी उनकी हिम्मत
थी ।
धर्म के सबसे बड़े आडम्बर के खिलाफ कुछ बोलने दिखाने की कुव्वत उनमे नहीं थी
जिसकी उपज आज आतंकवाद
है ।
पूरी तरह पक्षपाती फ़िल्म । लोग भी पता नहीं क्यों ऐसे समय में हद से ज्यादा समझदार बन जाते है या फिर हवा के रूख में बहने लगते है ।
पूरी तरह पक्षपाती फ़िल्म । लोग भी पता नहीं क्यों ऐसे समय में हद से ज्यादा समझदार बन जाते है या फिर हवा के रूख में बहने लगते है ।
भाई सब जिसकी तारीफ़ करे उसमे कुछ गलत मिलना भी तो आपकी मूर्खता या
अज्ञानता
ही कही जायेगी न ?
और कुछ लोग बेवजह फूल के कुप्पा हुए जा रहे है के आमिर ने भोजपुरी को सम्मान दिया
और कुछ लोग बेवजह फूल के कुप्पा हुए जा रहे है के आमिर ने भोजपुरी को सम्मान दिया
बोलकर ( जबकि वह अवधि थी वो भी
अशुद्ध ) तो भइया मुगालते में मत रहो कोई सम्मान वम्मान नहीं यह सिर्फ व्यापार
है ।
फ़िल्म बढ़िया है लेकिन मैंने देखते वक्त कुछ आडम्बरो की बखिया
फ़िल्म बढ़िया है लेकिन मैंने देखते वक्त कुछ आडम्बरो की बखिया
उधेड़ने की उम्मीद पाली थी । लेकिन ऐसा नहीं हुवा क्योकि शायद अपनी हद उन्हें
पता है के कहा बोलना है और कहा नहीं ।
गलत चीजो का विरोध करना या सुधार की उम्मीद करना गलत नहीं है किन्तु
गलत चीजो का विरोध करना या सुधार की उम्मीद करना गलत नहीं है किन्तु
यह तब
गलत हो जाता है जब आप किन्ही का बचाव और किन्ही की गलतिया सुधारने का प्रयत्न या दिखावा करना शुरू कर देते
हो
Bahot umda prahaar kiya hai
जवाब देंहटाएंAapki samiksha k intjaar me abhitak film nahi dekhi thi ab dekhege
Deven Bhai Apne to is film ka behtar vishleshan kiya hai.....
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