बातें किताबें मुलाकातेंभाग ३पिछली दो पोस्ट
में
मैंने जिक्र किया किस तरह मै और शुभानन्द जी सूरज पॉकेट बुक्स के कार्यक्रम के लिए
मुंबई से दिल्ली पहुंचे और आदित्य जी एवं बाकी लेखको, कलाकारों से मिले।अब मै,मिथिलेश और
शुभानन्द जी कैब में सवार थे। हमे दिल्ली से सोनीपत पहुँचने में काफी समय लगना था।
हम पहले भी एकदूसरे से एक साथ मिल चुके थे, इसलिए सूरज पॉकेट बुक्स की टीम में हम
तीनो की बॉन्डिंग भी सबसे अलग और मजबूत है क्योकि हम शुरुवात से साथ जुड़े है और
एकदूसरे का काम देखते सराहते आये है। शुभानन्द जी के सेल्फ पब्लिश नोवेल्स से मिथिलेश
की वो भयानक रात और जस्ट लाइक दैट, के बाद मेरी खुद की पुस्तक इश्क बकलोल और एस सी
बेदी,परशुराम जी के बाद अंतर्राष्ट्रीय साहित्य के अधिकार से लेकर अब एक स्वतंत्र
और निर्भर पब्लिकेशन तक का सफर मैंने या कहू हमने साथ साथ देखा है इसलिए हमारी
ट्यूनिंग सबसे अलग है ( भले अपने मुंह तारीफ़ कर लू, इतना तो बनता है ) तो यहाँ इस
भूमिका से आशय यह था के दिल्ली आने के पश्चात पहली बार हम तीनो सही मायने में एक
साथ थे। आदित्य जी के घर पे भी साथ ही थे किन्तु वहा हम सभी अलग अलग तैय्यारियो
एवं भागदौड़ में लगे हुए थे। तो अब हमने अपने अचीवमेंट्स पर गौर किया और यह कोई
अतिश्योक्ति नही थी। यदि आपने जर्रे से शुरुवात करके एक इमारत खड़ी की हो तो
स्वाभाविक है के आप खुश होंगे, भाऊक होंगे, आपका अधिकार बनता है।हम तीनो प्रसन्न थे।
मिथिलेश जी और शुभानन्द जी यही बाते कर रहे थे के हमने कैसे शुरुवात की और आज हम
दिल्ली में अपना एक स्वयम का छोटा सा कार्यक्रम करने जा रहे है। सभी के मन में
उल्लास तो था ही। साथ ही साथ कल होने वाले आयोजन की कल्पना से ही रोम रोम पुलकित हो
रहा था और उत्सुकता चरम पर थी। आज रात नींद तो आनि ही नहीं थी। हमारी बाते चल ही
रही थी के मुझे एक गाँव का साइन बोर्ड दिखाई दिया और मै चौंक पड़ा।“अरे मिथिलेश! वो देखो ‘बकलोली’
गाँव।“ मैंने हैरत से कहा तो दोनों ने उधर देखा और पहले उन्होंने भी वही पढ़ा फिर जब
वे समझे तो हंस पड़े के ये बकलोली नही “बकौली” था।“अरे का पाण्डेजी हर जगह
बकलोली ही नजर आ रही है आपको।“ कहकर मिथिलेश हंस दिया,और हम भी शामिल हो गए। अब
किसी भी बेवकूफी या मजाकिए वाकये के लिए “बकलोली” शब्द हमारी पूरी टीम का तकिया
कलाम बन चुका था। मै मुंबई से निकलने के पश्चात अब तक कई बार बकलोली शब्द सुन चूका
था। यहाँ तक के अभी मुंबई पहुँचने के बाद भी एक पोस्ट पर मिथिलेश जी ने कोई गलत
कमेन्ट कर दिया था जो शायद कमजोर नेटवर्क के कारण वो डिलीट नही कर पा रहे थे तो
उन्होंने मुझे फ़ोन किया “ अरे देवेन भाई एक ‘बकलोली’ हो गई यार। एक गलत कमेन्ट आ
गया है आपकी पोस्ट पर वह डिलीट नही हो रहा आप कर दीजिये।“ तो मै पहले हंसा और फिर
वह कमेन्ट डिलीट कर दिया। खैर ! बातों का रुख बकलोली की ओर से हटा कर यात्रा की ओर
करते है।तो गूगल मैप का सहारा
लिए हुए हम लगभग सवा या डेढ़ घंटे में रेप्लिका प्रेस के दिए पते पर पहुंचे। वह
अपेक्षाकृत बड़ा कमर्शियल काम्प्लेक्स था जहा रेप्लिका के दो बड़े ऑफिस थे। हमे
दुसरे में जाना था और हमने कई लोगो से रेप्लिका के बारे में पूछा तो उन्होंने
अनभिज्ञता दिखाई। फिर एक जगह दो बंदे जा रहे थे, गाडी रुका कर जब उनसे पूछा तो
पहले वे अचम्भे में पड़े के ऐसा कुछ यहाँ नहीं है, फिर जब प्रिंटिंग वगैरह का
उल्लेख किया तो एक व्यक्ति चौंका “ रिपालिका!!!” हमने कहा हां “रिपालिका” तब
उन्होंने आगे जाकर लेफ्ट लेने के लिए कह दिया। हम बढ़े और हमे यह ज्ञान हुवा के लोग
रेप्लिका को रिपालिका भी कहते है लोकल एक्सेंट में। अब हम रेप्लिका के सामने खड़े
थे। हमने कैब वाले को वेटिंग पर रखा और पहले गेट की ओर बढ़े तो वहा उपस्थित सिक्योरिटी
ने दुसरे गेट पर भेजा, अब वह गेट लगभग ढाई सौ मीटर दूर था और हम फिर वहा गए तो वहा
उपस्थित सुरक्षा प्रहरी ने हमे उसी गेट पर जाने को कहा जहा से हम आये थे। अब हमें
हंसी भी आ रही थी और खीज भी शुभानन्द जी ने तब रेप्लिका में फोन किया। हमें अंदर
बुलाने का आदेश लेकर एक व्यक्ति आये और हमने सबसे पहले तो प्रेस की इमारत के साथ
एक सेल्फी खिंच ली ताकि यादो में सहेज सके। अब कुछ ही देर में हम प्रेस में थे,
शुभानन्द जी ने जिनसे बात की थी वे हमसे काफी गर्मजोशी से मिले। हम तीनो पहली बार
किताबे प्रिंट,बाइंडिंग और डिजाइन होते अपनी आँखों से देख रहे थे। एक तरह से वह हम
जैसे लेखक कम पाठको के लिए स्वर्ग था। हम तीनो कौतुहुलता से पुस्तको को बनते देख
रहे थे, कही लोग पृष्ठों को जोड़ रहे थे, कही मशीन में चमकदार पन्नो पर विभिन्न
कवर्स प्रिंट हो रहे थे। कही कटिंग हो रही थी कही पैकिंग हो रही थी, हर ओर वातवरण
में कागज़ और स्याही की खुशबु फैली हुई थी। खैर हम यहाँ जिस काम के लिए आये थे पहले
वह निपटाना आवश्यक था। हम तीनो अब मीटिंग रूम में थे और पुस्तको के ले आउट,
डिजाइन, आवरण,प्रिंटिंग आदि से सम्बंधित विवरण ले रहे थे और ज्ञान वृद्धि कर रहे
थे। हम इस तरह से व्याकुल थे जैसे किसी बच्चे को किसी मिठाई के दूकान में खुला छोड़
दिया गया हो। हमने हर सम्भव प्रश्न किये और उन महाशय ने बड़ी ही विनम्रता से हमारी
हर उत्सुकता को शांत किया। उसके बाद जब तक हमारी पुस्तके पैक होती तब तक उन्होंने
हमे अपना प्रेस दिखाने के लिए आमंत्रित किया, हमे यही तो चाहिए था। हम निकल पड़े और
वे हर चीज बताते, फिर एक विशेष तरह की डिजाइन के लिए मिथिलेश ने जानकारी ली तो
उन्होंने हमे एक उदाहरण दिखाने के लिए बुलाया, वहा उनके कुछ और बंदे आये और
उन्होंने मिथिलेश और मेरी ओर देखकर असमंजस सी नजरो में देखा, मानो पहचानने का
प्रयास कर रहे हो। फिर उन्होंने पुछ ही लिया “ ये दोनों ऑथर्स है ना ?” मै और
मिथिलेश बड़े प्रसन्न हुए के यार ये देखो ये है असली कमाई। एक पहचान! जो छोटी ही
सही लेकिन एक स्वतंत्र पहचान है जो लेखन की वजह से है। शुभानन्द जी ने अपना हुलिया
बदल रखा था उन्होंने मूंछे रखनी शुरू की थी और उनकी तस्वीरो में वे क्लीन शेव्ड है
इसलिए उन्हें वे न पहचान पाए तो मिथिलेश ने जब उनका परिचय कराया तो वे भी हैरान हो
गए और काफी प्रसन्न भी दिखे। फिर हमारी पुस्तके पैक हो गयी और अब हमे निकलना भी था।
ड्राइवर ने भी फोन करना शुरू कर दिया, बेचारे को घबराहट हो गई होगी के भाग तो नहीं
गए बिना पेमेंट दिए। मैंने फ़ोन रिसीव करके उसे समझाया के हम आ ही रहे है। तब हमने
समय देखा तो हमे एक घंटा हो गया था प्रेस में आये हुए जबकि हमारे अनुमान से केवल पन्द्रह
या बीस मिनट ही हुए होंगे। यहाँ आकर समय का पता ही नहीं चला। अब हम लोडिंग एरिया
में थे और ख़ुशी इतनी थी के उन्हें बक्से लोड करवाने का भी अवसर नहीं दिया और हमने
खुद ही बक्से उठा कर कैब में रख दिए। उनका आदमी सर,सर अरे नहीं सर कहता ही रह गया
और हमने सब भर दिया। मैंने कहा भी “ये करने दो भाई, बाड़ में हमे कहने का अवसर भी
मिलेगा के हमने इसमें अपना पसीना बहाया है।“ सब हंस दिए और ख़ुशी ख़ुशी सबसे विदा हो
लिए।मैंने मिथिलेश ने कहा “मिथिलेश
यही जॉब के लिए अप्लाई कर दे यार।“ मिथिलेश मुस्कुराया और बोला“जॉब की छोडो! मै तो
दिल्ली में ही अपने ऑफिस के सपने देख रहा हु।“ हम तीनो इस बात पर मुस्कुराए।
किन्तु हमें ही पता था के अब तक की हुई हर चीज हमारे लिए सपना ही थी। चाहे पुस्तक
छपवाना हो, पब्लिशर के तौर पर शुरुवात करना हो, बड़े लेखको के साथ काम करना हो या
अंतर्राष्ट्रीय साहित्य के अधिकार लेना हो या फिर अपना खुद का आयोजन दिल्ली में
करना हो। यह सभी एक समय नामुमकिन सा था लेकिन हर सपना स्टेप बाई स्टेप पूर्ण हुवा
तो मिथिलेश की इस बात को हमने ख़ुशी से स्वीकार किया। अब हम वापस दिल्ली की ओर थे
और रात हो चुकी थी। सफर के दौरान ही मोहित जी का फोन आया और हमने कल के लिए कुछ
जरुरी विषयों पर चर्चा की, मोहित जी ने बताया वे दस बजे तक सीधे हॉल पहुँच जायेंगे।अब हम घर पहुँचने वाले
थे ......क्रमश:x
x
शुभानन्द जी, मै और मिथिलेश ,रेप्लिका प्रेस की इमारत के सामने |
x
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें