रविवार, 2 अगस्त 2015

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कारवाँ : ग्राफिक नावेल समीक्षा

कारवां : एक खुनी यात्रा ,
कुछ अरसे पहले कॉमिक्स जगत काफी सदमे झेल चूका था , 
बड़ी बड़ी दिग्गज कॉमिक्स कम्पनीज बंद हो रही थी ! 
वजह कुछ भी रही हो ,पाठको की बदलती रूचि ,मनोरंजन के बढ़ते साधन ,
पढने में रूचि कम होना ,
एवं बदलते समय के साथ कॉमिक्स पाठको के विचार बदलना .
हमारे समाज में कॉमिक्स अभी भी बच्चो की ही चीज मानी जाती रही है ! 
यहाँ अमरीका जैसा कॉमिक्स कल्चर नहीं है जहा कॉमिक्स बच्चो की नहीं बल्कि वयस्कों की चीज है , 
वहा तो कॉमिक्स जगत का अनुठा संसार है जहा हर साल कॉमिक्स पात्रो पर बनी हुयी फिल्मो को
 हाथो हाथ लिया जाता है और अरबो खरबों की कमाई की जाती है ! 
दिलचस्प बात यह है के हमारे भारत में भी ऐसी फिल्मो का बड़ा बाजार बन चुका है ,
किन्तु कितने लोग है जो यह जानते है के परदे पर दिखने वाला यह लाल लोहे का कवच पहने
 व्यक्ति कॉमिक्स की दुनिया से आया है ?
डरावने स्याह लिबास और लबादा पहने वह चमगादड़ सदृश्य जीवट व्यक्ति कॉमिक्स की 
दुनिया से परदे पर आया है ? लाल लबादा और नीली पोशाक धारी शक्तिमान नायक भी
 इन्ही कॉमिक्स की देन है .
आसपास नजरे दौडाए तो हर साल भारत में भी करोडो का व्यापार करने वाली विदेशी फिल्मो
 के यह चरित्र कॉमिक्स की चमकीली दुनिया से ही तो आये है ! 
फिर क्यों लोग कॉमिक्स को बच्चो की चीज कहते है ?
क्योकि हमने इन्हें बना दिया है , कॉमिक्स पढनेवाली पीढ़ी बड़ी हो गयी किन्तु कम्पनीज
 अभी भी बच्चो के दौर में ही है ! 
समय के अनुरूप बदलाव ही नहीं किये गए जबकि परिवर्तन नितांत आवश्यक है ! 
कॉमिक्स इंडस्ट्री के इस नाजुक समय में भी कई कम्पनीज ने इसी तर्ज पर चलते हुए इस
 मिथक को तोड़ने का प्रयत्न किया है के कॉमिक्स बच्चो की चीज नहीं है ,
यह एक सम्पुर्ण मनोरंजन है ! 
आप उपन्यास पढ़ते है , इसी तरह से कॉमिक्स भी उपन्यास का ही एक चित्रित स्वरूप है 
जिसमे विवरण शब्दों की बजाय चित्रों से वर्णित किया जाता है ,किन्तु यह बात जल्द समझ नहीं आती .
इसी प्रयास के तहत सृजन हुवा कॉमिक्स के बदले स्वरूप ‘ग्राफिक नावेल ‘ का , 
यह नाम थोडा वजनदार भी है ,और इसमें से ‘बच्चो ‘ वाली फिलिंग भी नदारद है ! 
आजकल कुछ नए पब्लिशर्स ऐसी ही रचनाये पाठको के सामने प्रस्तुत कर रहे है जो 
कॉमिक्स से जुड़े मिथकों को चुनौउती देते है और सफल भी होते है .
‘याली ड्रीम्ज क्रिएशन ‘ की कुछ समय पहले ‘शामिक दासगुप्ता ‘ जी द्वारा लिखित
 ‘ग्राफिक नावेल ‘ ‘’कारवां ‘ ने काफी प्रशंशा बटोरी थी , जो अंग्रेजी में थी ! 
हां नए पब्लिशर्स हिंदी में अपनी पुस्तक पब्लिश करने का जोखिम नहीं उठाना चाहते क्योकि
 इसका बाजार सिमित था ,और प्रॉफिट की कुछ विवशताए भी थी ! 
कारवाँ भी अंग्रेजी में ही आई थी ,किन्तु इसे काफी सराहा गया और सकारात्मक प्रतिक्रियाये मिली .
समय थोडा और बदला और हिंदी पाठको की सक्रियता को पब्लिशर भी नहीं नकार सके ! 
शायद यही वजह रही हो के यह पुस्तक अब हिंदी में भी प्रकाशित हुयी और जिसकी चर्चा
 पिछले कुछ महीनो से विभिन्न कॉमिक्स ग्रुप्स में जोरो पर रही ! 
हिंदी पाठको की मांग को देखते हुए इसे दोबारा नए कलेवर में हिंदी में रिप्रिंट किया गया जिसके
 परिणाम भी पुस्तक को देखते हुए शत प्रतिशत सकारात्मक एवं उत्साहजनक ही होंगे यह तय है .
कारवाँ की कहानी मै अंग्रेजी में भी पढ़ चूका हु ,किन्तु हिंदी पढने के पश्चात यह लगा के
 हिंदी में जो मनोरंजन की क्षमता थी वह अंग्रेजी में नहीं थी क्योकि कहानी के वातावरण 
के अनुरूप इसमें देसी लहजे का प्रयोग ही अधिक सुविधाजनक होता ! 
जो के हिंदी वर्जन में है ,कहानी एकदम देसी टच लिए हुए है ,गोरखपुरी एवं राजस्थानी टोन लिए हुए , 
बहुत कम पुस्तके होती है जो ट्रांसलेशन के बाद भी अपने मूल रूप से अलग बन पाती है ,
उनमे ट्रांसलेशन की झलक साफ़ दिखती है !
किन्तु इसमे ट्रान्सलेशन लगता ही नहीं ,मानो पुस्तक मूल रूप से हिंदी में ही बनी हो !
 इसके लिए इसके ट्रांसलेटर ‘विशाल पाण्डेय ‘ जी निस्संदेह प्रशंषा के पात्र है ,
अभी तो शुरुवात है इनकी .
कारवाँ कहानी है पिशाचो के एक दल की ,जो वर्षो से दुनिया के बीहड़ इलाको में जाकर
 लोगो के मनोरंजन की आड़ में तबाही का रक्तिम खेल खेलता है और लुप्त हो जाता है !
एक ऐसी ही मुठभेड़ में ‘आसिफ ‘ के अम्मी अब्बू इन पिशाचो का शिकार बन जाते है !
 और सारे गाँव में अकेला आसिफ ही बचता है जिसकी कहानी पर किसी को विश्वास नहीं !
समय के साथ वह एक तस्कर बन चूका है और एक इमानदार पुलिसवाले राठौड़
 के हाथो पकड़ा भी जाता है ,
किन्तु परिस्थितिया कुछ ऐसी बनती है के ,उन्हें मरुस्थल में स्थित एक किले में शरण लेनी पडती है .
जहा बीएसएफ के जवानों ने डेरा डाल रखा है ,जिनका प्रमुख है दरोगा भैरो सिंग ,
जो एक काईयाँ अफसर है ,वह आसिफ को अपने कब्जे में ले लेता है और उसका विरोध करती 
है उसकी भतीजी ‘दुर्गा ‘ जो अपने चाचा के कारनामो से परेशान रहती है ! 
और इसी रात उस किले की ओर रुख करता है ‘कारवाँ ‘
इस बीहड़ और दुर्गम मरुस्थल में कारवाँ में मौजूद सुंदरियों को देख कर हर कोई
 अपनी सोचने समझने की क्षमता ताक पर रख देता है और उन्हें यहाँ नौटंकी की परमिशन दे डी जाती है , 
इस कारवाँ को देखकर आसिफ दहल जाता है और वह इन्हें निमंत्रण न देने को कहता है ,
किन्तु उसकी कोई नहीं सुनता !
अब कारवाँ ने अपना डेरा इस किले में डाल दिया और शुरू होता है खेल जो रात्री के साथ 
साथ खुनी हो जाता है ,मनोरंजन आतंक में तब्दील हो जाता है जब इस कारवाँ और
 उनकी सुंदरियों का असल रूप सामने आता है ,
फिर क्या होता है ? यही शेष भाग है जो काफी दिलचस्प है , इसके बाद सिर्फ जीवित बचे रहने की 
जिजीविषा ही है ! जो कैसे कैसे मोड़ से गुजरती है यह पढना दिलचस्प होता है .
पूरी पुस्तक एक फिल्म की तरह है ,जिसमे पर्याप्त गति है ,क्षमता है बांधे रखने की !
 कंटेंट थोड़े मैच्योर है और चित्रों संवादों में साफ़ नजर आते है ,
किन्तु कहानी के परिवेश के हिसाब से अखरते नहीं है .
चित्रांकन शानदार हुवा है बिनाश्क ,जो मोह लेता है ! खासतौर पर कारवाँ की रूपसियो का
 सजीव चित्रं लाजवाब है ,
अंग्रेजी जहा बड़ी साईज में थी वह हिंदी वर्जन सामान्य कॉमिक्स की साईज है जो देखने में 
और सम्भालने में आकर्षक लगती है ! कवर आर्ट बदल दिया गया है और बेहद सुंदर बनाया गया है ,
किन्तु पुराने कवर्स को भी होना चाहिए था !
इसमें नायक कौन है यह आप शायद निश्चित न कर पाए ,किन्तु इसका नायक न 
आसिफ है,न राठौड़ , इसके नायक है भैरो सिंग और दुर्गा ! गजब के ढीठ और साहसी ,
इतनी विषम परिस्थितियों में भी लड़ने की कुव्वत होना बहुत बड़ी बात होती है ,
और भैरो सिंग का झुझारुपन भी जबरदस्त है , जहा आसिफ और राठौड़ केवल 
अपनी जान बचाते नजर आते है वही भैरो सिंग अकेले कारवाँ को नाको चने चबवा देता है !
यह चरित्र अभी आएगा शायद कहानी के अंत में इसका आशय दर्शाया है ,किन्तु एक नए रूप में !

हिंदी में आये इस प्रयास की सफलता ही हिंदी ग्राफिक नावेल का आगे का मार्ग सुनिश्चित करेगा ! 
कॉमिक फैन्स और पाठको को अवश्य पढनी चाहिए .

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